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रज्याभिषेक


हमारी मान्यता यह है कि जो लोग उपर्युक्त विचार प्रकट करते हैं और वफादार नहीं रह सकते उनको चाहिए कि वे अपनी बेवफादारी प्रकट करें और मैदानमें आयें। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनपर खोटेपन और नामर्दीका आरोप लगेगा।

किन्तु हमारा खयाल है कि अपने ऊपर असीम कष्टोंके बावजूद हम बादशाहके प्रति राजभक्त रह सकते हैं। हम यहाँ जो कष्ट होते हैं उनके लिए यहाँके अधिकारी और विशेष रूपसे हम स्वयं उत्तरदायी है। यदि हम सच्चे बनकर, सच्चे रहकर, अपने आसुरी अंशके प्रति तिरस्कार प्रकट करें और इस प्रकार उसे अपने भीतरसे भगाकर अपने आचरणोंके स्वामी आप ही बन जायें तो हमें किसी भी कष्टका अनुभव नहीं हो। तब हम इस स्थितिमें होंगे कि कह सकेंगे, अहा, बादशाह जॉर्ज पंचमके शासनमें हम कितने सुखी है !" अपने भीतर स्थित असुरको बिलकुल निकाल फेंकनेमें हम जितने अशक्त होंगे उतना ही हमें स्थानीय अधिकारियोंके सम्मुख गिड़- गिड़ाना होगा और ऐसा करके शायद दुःखके देवताको थोड़ी देरके लिए हम शान्त कर सकेंगे। हम इन दोनों बातोंमें से एक भी न करें तो फिर बादशाह जॉर्जका क्या दोष है? कोई उत्तरमें कह सकता है कि यह सब बादशाह जॉर्जके नामपर चलता है, इसलिए अच्छे और बुरेका यह यश-अपयश उन्हींको मिलेगा। हम ऊपर जो कुछ लिख चुके हैं, उससे यह भी रद हो जाता है। ब्रिटिश राजतन्त्र निरंकुश नहीं है। वह मर्यादाओंसे बँधा हुआ है और ब्रिटिश राजतन्त्रके सिद्धान्तके अनुसार मर्यादाकी आवश्यकता भी है। यदि बादशाह इस मर्यादाको त्याग दे तो वह तख्तसे उतार दिया जायेगा।

फिर, ब्रिटिश संविधानका उद्देश्य यह है कि उसके अन्तर्गत प्रत्येक मनुष्यको समान अधिकार और समान न्याय प्राप्त होना चाहिए। जिसे तदनुसार ये प्राप्त न हों उसे उनकी प्राप्तिके लिए लड़नेकी स्वतन्त्रता है; शर्त केवल यही है कि वह अपने संघर्षसे दूसरोंको हानि न पहुँचाये। इतना ही नहीं कि प्रत्येक ब्रिटिश प्रजाजन- को इस प्रकार लड़नेकी स्वतन्त्रता है, बल्कि इस प्रकार लड़ना उसका कर्तव्य है। ऐसे संविधानके प्रति और उसके मुख्य अधिकारी बादशाहके प्रति भक्ति प्रकट करना कर्तव्य हो जाता है, क्योंकि इस भक्तिका आधार हमारी अपनी मर्दानगी है। गुलामकी भक्ति, भक्ति नहीं कही जायेगी। गुलाम तो चाकरी करता है। उसकी भक्ति लाचारीकी भक्ति हुई। स्वतन्त्र व्यक्तिकी भक्ति उसकी अपनी इच्छासे उद्भूत होती है।

यदि कोई ऐसी शंका करे कि इस दृष्टिसे तो दुष्ट राजा और दुष्ट संविधानके प्रति भी भक्ति रखी जा सकती है, तो यह उचित नहीं होगा। उदाहरणके रूपमें, लड़ाईसे पहलेके बोअर-संविधान या उसके प्रधान क्रूगरके प्रति हमारे लिए स्वतन्त्र व्यक्तिकी हैसियतसे भक्ति रखनेकी गुंजाइश ही नहीं थी। क्योंकि उनके संविधानमें ही यह कहा गया था, “काले और गोरेके बीच शासन और धर्म-सम्बन्धी मामलोंमें समानता नहीं हो सकती।" हम ऐसे संविधानके प्रति भक्त नहीं रह सकते या हो सकते। इस स्थितिमें तो हमें अधिकारी और उसके अधिकारके आधार, दोनोंके विरुद्ध