सीख लेना और समाजोपयोगी दस्तकारियोंमें उनकी जैसी प्रवीणता प्राप्त कर लेना हमारे लिए एक सम्मानकी चीज होनी चाहिए। हम अपने मित्रोंको विश्वास दिलाना चाहते है कि हमारी समस्त दुःखदायी निर्योग्यताएँ यदि कलमके एक ही झटकेसे दूर हो जायें तो भी उपनिवेशमें पैदा हुए मित्रोंकी अवस्था तबतक किसी प्रकार सन्तोषजनक नहीं हो सकेगी जबतक कि वे इस लेखमें बताये उद्योगोंकी ओर अपनी बुद्धि और शक्ति नहीं लगायेंगे।
[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन१५-७-१९११
१०४. भारतकी दुर्दशा
"समझौता सम्पूर्ण रूपसे हो जानेका समाचार मिला है। यह समाचार सन्तोषप्रद है। जिस संघर्षमें इतनी कुर्बानी दी गई हो, उस संघर्षका परिणाम एक ही हो सकता है। फिर भी, परिणामके सिलसिलेमें विचार करें तो यहाँकी [भारतकी] दुर्दशापूर्ण स्थितिपर बहुत ही दुःख होता है। हालत तो इतनी बुरी हो गई है, मानो सारीकी-सारी इमारत जर्जर होकर ढह रही हो। जो थोड़ा-बहुत ढाँचा खड़ा भी है सो ठोस बुनियादके कारण । तन, मन और धनसे लोग क्षीण हो गये हैं। चारों ओर दारिद्रय फैला हुआ है। जैसे यह एक कहावत है कि “बैठा बनिया बाँट ही तौले।"[१] उसी प्रकार आपने यह कहावत भी सुनी होगी कि "धोबीसे जीते नहीं, गधीके कान मरोड़े।"[२] दरिद्रता-रूपी वृक्षमें पापके ही फल आते हैं। आर्थिक परिस्थिति तो बेहद बिगड़ चुकी है। लोग झल्लाकर पूछ रहे है कि कौन-सा धन्धा किया जाये। आप कहेंगे कि खेती सबसे अच्छी है। परन्तु यह तो धीरज, लगन और दृढ़ताके साथ काम करनेवालोंके लिए है। लोगोंकी इस दुर्दशाके कारण है जात-बिरादरीके झगड़े, व्यवहार और जाति-भोज आदिके मामलोंमें अशोभनीय होड़, चार, छ:, आठ या दस घंटे नौकरी करके जो मिल जाये उसीमें खुश रहना और शेष समय आलस्यमें बिताना, इसीमें झूठा सन्तोष मानना, प्लेग आदिसे डरना इत्यादि । शिक्षा जो सुख-समृद्धिका साधन मानी जाती है [हमारे लिए] घोरतम दुर्दशाका कारण सिद्ध हुई है। पढ़ते-पढ़ते शरीर तो चौपट हो ही जाता है। पढ़ाई-लिखाईके तरीके ऐसे है कि पढ़नेवाला तनसे, मनसे और धनसे बिलकुल खोखला हो जाता है। इस सबके अलावा समाजमें अपनी स्थिति बनाये रखनेका बोझ। मनुष्य ज्यों ही कुछ समझने-बूझने योग्य हुआ और उसने सिर उठाकर जीवन-यापन करनेकी इच्छा की कि वह कुटुम्ब-परिवारके बोझसे दब जाता है।"