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भारतकी दुर्दशा


उपर्युक्त विचार हमने दक्षिण आफ्रिकाके एक सुशिक्षित अनुभवी भारतीय द्वारा दूसरे भारतीयके नाम लिखे एक पत्रमें देखे है। लेखकने देशकी स्थितिकी हूबहू तस्वीर खींचकर रख दी है। इन विचारोंको पाठकोंके समक्ष रखना और उनपर अपनी सम्मति प्रस्तुत करना हमें ठीक ऊंचा है। देशभक्तका प्रथम कर्तव्य यह है कि वह देशकी दशाका ज्ञान प्राप्त करे; इस दशाको सुधारनेके उपाय खोज निकालना उसका दूसरा कर्तव्य है। फिर देशभक्तको चाहिए कि वह इन उपायोंको कार्यान्वित करे; यह उसका तीसरा कर्तव्य हुआ। देशकी स्थिति ऊपर लिखे अनुसार ही है। इसके विषयमें शंका करनेकी गुंजाइश नहीं है। उपाय जान लेने के पश्चात् उनपर अमल करना पाठकोंके हाथमें है। हम तो उपायकी खोज करने में हाथ बटा सकते हैं।

देशकी स्थिति खराब क्यों है, इसपर प्रकाश डालते हुए उपर्युक्त पत्रके लेखकने सहज ही कुछ कारणोंका उल्लेख किया है। आइए, उनपर कुछ और विचार करें। दुर्दशा भुखमरीके कारण नहीं हुई है। भुखमरी ही दुर्दशा है। लोगोंका नौकरीमें सन्तोष मान लेना दुर्दशाका कारण नहीं, बल्कि यही दुर्दशा है। जात-पाँतके मामलोंमें झगड़ना, दम्भ, गलत होड़, प्लेगका डर-- ये सब बातें दुर्दशाका कारण नहीं बल्कि दुर्दशा ही हैं। इन सबका कारण एक ही है, और वह यह कि हम कर्तव्यका पालन नहीं करते, हम ईश्वरको भूल गये है और शैतानको पूज रहे हैं। प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य तो ईश्वरको भजना है। माला फेरना ईश्वरको भजनेका चिह्न नहीं है। मस्जिदमें या मन्दिर में जाना, नमाज पढ़ना या गायत्री जपना -- - यह भी नहीं। माला फेरना, मसजिद या मन्दिरमें जाना, नमाज पढ़ना या गायत्री जपना अपनी-अपनी जगह ठीक है। लोगोंके लिए अपने-अपने धर्मके अनुसार इनमें से एक या दूसरी चीज आवश्यक है। परन्तु इनमें से किसीको भी ईश्वरोपासनाका लक्षण नहीं माना जा सकता। ईश्वरको तो वह भजता है जो दूसरोंके सुखको अपना सुख मानता है; जो किसीकी निंदा नहीं करता, जो धन-संचय करने में अपना समय नहीं गॅवाता, अनीतिके मार्गपर नहीं चलता, जो सबको मित्र मानता हुआ अपना लोक-व्यवहार चलाता है। जो केवल ईश्वरसे ही डरता है, इसलिए प्लेगसे या मनुष्यसे नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति जातिके डरसे जाति-भोज नहीं करेगा। यदि वह युवा होगा तो उचित अवस्थाको प्राप्त हुए बिना अथवा बिना आवश्यकताके, महज जातिवालोंके डरसे अपना विवाह नहीं करेगा। यदि वह पिता है तो जातिवालोंके डरसे अपने पुत्रों और पुत्रियोंको गड्ढे में नहीं ढकेलेगा। ऐसा मनुष्य कोई काम करते समय इस प्रकार नहीं सोचेगा कि अमुक व्यक्ति या हमारी बिरादरी इसके बारेमें क्या ख्याल करेगी? वह तो यह सोचेगा कि मेरे इस कार्यके विषयमें परमेश्वर क्या कहेगा? इस सबका मतलब यह निकला कि हम चाहे हिंदू हों या मुसलमान, पारसी हों या ईसाई. -अपने-अपने असली धर्मको भुला बैठे हैं। यदि यह विचार ठीक हो तो हमें प्लेगसे बचनेके उपाय सोचने की जरूरत नहीं रह जाती, अंग्रेजी-शासनके विरुद्ध विद्रोह करनेकी जरूरत नहीं रह जाती, न बड़े-बड़े संघों और उनकी आडम्बरपूर्ण कार्यप्रणालीकी, और न समितियों और सभाओंकी। तब हम इस खयालसे एक दूसरेका मुंह न ताकेंगे कि जब सभी अमुक कामको प्रारम्भ करेंगे तब हम भी करेंगे। केवल एक बातकी जरूरत है -अपने कर्तव्यका भान होनेके बाद हमें