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डॉ० प्राणजीवन मेहताको


उनकी अपनी मातृभाषाको छोड़कर दूसरी किसी भाषाके माध्यमसे शिक्षा दी जायेगी तो भय है कि वे अपनी राष्ट्रीयता गँवा बैठेंगे। उनका यह कथन कि जो बच्चे अपने देशकी भाषाको भल जाते हैं, अपनं माता-पिताके प्रति उनका आदर कम हो जाता है, कितना ठीक है। “अपने पिता और माताका मान करो"-- यह ईसा, मुहम्मद, जरथस्त्र और वेद-सभीका आदेश है। इसलिए जो अपनी मातृभाषाके प्रति--चाहे वह कितनी ही साधारण क्यों न हो-- इतने लापरवाह है, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धान्तको भूल जानेका खतरा मोल ले रहे हैं। यदि डच भाषाके बारेमें जनरल हेटसॉगका यह कथन डच बच्चोंके लिए सत्य है तो भारतीय भाषाओंके सम्बन्धमें भारतीय बच्चोंके लिए तो वह और भी अधिक सत्य सिद्ध होगा। भारतमें यद्यपि लाखों मनुष्य अपना नाम लिखना भी नहीं जानते, तथापि वे अपने महाकाव्यों, ‘रामायण' और 'महाभारत' के मर्मको जानते है। हमारे राष्ट्रीय जीवनपर इनका जैसा प्रभाव है वैसा अन्य इने-गिने ही धार्मिक ग्रन्थोंका होगा। हम यह बात नहीं मानते कि अंग्रेजी अनवादोंके जरिये, वे चाहे कितने ही शुद्ध हों, हम ये ग्रन्थ अपने बच्चोंको। पढ़ा सकते हैं। यदि हम अपने जातीय काव्यको भुला देंगे तो हमारा ख्याल है कि हम स्वतन्त्र और स्वाभिमानी मनुष्यकी हैसियतसे जिन्दा नहीं रह सकेंगे। वह विदेशी भाषाके माध्यमसे कदापि नहीं सीखा जा सकता।

परन्तु कुछ लोगोंको यह भ्रम है कि अपनी मातृभाषा तो आगे चलकर भी सीखी जा सकती है। इन लोगोंके बारेमें तो हम यही कह सकते हैं कि वे नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं। जनरल हेटसॉगने ठीक ही कहा है कि शिक्षाका वास्तविक उद्देश्य परीक्षाएँ उत्तीर्ण कराना नहीं, बल्कि बच्चोंका चरित्र गढ़ना है। और बच्चे अपने अतीतको भूल जायें या उसकी उपेक्षा करें तथा एक विदेशी भाषाको सीखने में बरसों लगा दें तो इससे चरित्रका निर्माण नहीं हो सकता। यदि कोई तनिक भी विचार करे तो वह इसी निश्चयपर पहुँचेगा कि यह बड़ा महँगा सौदा है। अपने पूर्वजोंसे हमने जो महान पूँजी पाई है उसकी ऐसी बरबादी जबरदस्त अपराध है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-८-१९११

१२२. पत्र : डॉ० प्राणजीवन मेहताको'

श्रावण बदी ११ [अगस्त २०, १९११]

भाई श्री प्राणजीवन,

आपका पत्र इस सप्ताह नहीं मिला। 'मैं यह पत्र भी यूरोपके पतेपर ही भेज हैं। आप यदि वहाँ रहे तो यह सप्ताह खाली नहीं जायेगा। और यदि आप

१. यह पत्र यत्र-तत्र फट गया है । छूटे हुए शब्दोंको संदर्भसे कोष्ठकोंमें रखा गया है।

२. पत्रमें हरिलाल गांधीके उल्लेखसे स्पष्ट है कि यह उनके (मई १९११ में) दक्षिण आफ्रिकासे भारत रवाना होनेके बाद लिखा गया था।