पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 11.pdf/१८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४५
पत्र: छगनलाल और मगनलाल गांधीको



जयकृष्ण व्यास आदिने हमें ज्ञानकी सीख दी है, परन्तु वह निरा शुष्क ज्ञानमात्र है, ऐसा जान पड़ता है। सच्चा ज्ञान तो नरसिंह मेहता और सुदामाजीने सिखाया है, यही बात मनमें जमती है। इन्द्रियोंके भोगोंका उपभोग करके यह कहना कि मैं कुछ नहीं करता, इन्द्रियाँ ही अपना कार्य कर रही है, मैं तो दृष्टा-मात्र हूँ, आदि उक्तियाँ तो बिलकुल मिथ्यावाद-जैसी हैं। ऐसे वचन तो केवल वही कह सकता है जिसने सम्पूर्ण रूपसे इन्द्रिय-दमन कर लिया है और जिसकी इन्द्रियाँ केवल शरीरयात्राके निमित्त व्यापार करती हैं। इस हिसाबसे हममें एक भी मनुष्य ऐसी बात कहनेका अधिकारी नहीं है; और जबतक हमारे जीवन में खरी गरीबी नहीं आती तबतक हममें वह योग्यता आ भी नहीं सकती। राजा आदि अपने पुण्यके प्रतापसे राजा बनते हैं, ऐसा मान लेना निराधार है। कहा यही जाना चाहिए कि कोके बलपर ही राज्य-पद मिलता है। परन्तु वे कर्म पुण्य कर्म ही होते है, आत्माके स्वरूपका विचार करते हुए यह कहना भी एकदम असत्य लगता है।

मेरे ये विचार तुम सबको उचित लगते हों और मैं जिस उदात्त स्थितिका चित्र उपस्थित कर रहा हूँ उसका हम सब उपभोग करें--तुम सब ऐसी अभिलाषा रखो तो कदाचित् ईश्वर हमें वह दिन भी दिखा दे।

नारणदासने मेरे पत्रका जवाब भी नहीं दिया।

फार्मपर तो इस समय अलोनी खुराककी हवा चल पड़ी है;' देखना है यह कबतक चलती है। पारसी जोवणजीके दो बालक आज यहाँ स्कूलमें दाखिल होने आये हैं। वे भी अलोना खायेंगे इसी शर्तपर लिये गये हैं। शेष फिर।

मोहनदासके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू० ५५६८) से।

सौजन्य : श्रीमती राधाबेन चौधरी।

१. जयकृष्ण व्यासको भूलसे श्री कृष्ण व्यास पढ़ लिया गया था। बादमें गांधीजीने इसे स्पष्ट किया है। देखिए “पत्र : मगनलाल गांधीको", पृष्ठ १५१ ।

२. छगनलालके छोटे भाई । ३. देखिए " पत्र : हरिलाल गांधीको", पृष्ठ १२५ ।

११-१०