पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 11.pdf/२१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


विधि-विभाग (लॉ डिपार्टमेंट ) ने, लगता है, निर्णय किया है कि जिस भारतीयने फिरसे गिरमिटिया-करार किया हो अथवा स्वामी और सेवक अधिनियम (मास्टर्स ऐंड सर्वेट्स ऐक्ट) के अधीन कोई दीवानी करारनामा किया हो--- बह १९१० के अधिनियम १९ की धारा ३ के अन्तर्गत ऐसा करनेका अधिकारी है -- उसे दुबारा किये गये गिरमिटिया करारनामेकी अथवा नौकरीके करारनामेकी अवधि तक तीन पौंडी कर देना होगा। अधिनियमकी यह धारा इस प्रकार है:

.१८९५ के अधिनियम १७ के अन्तर्गत किसी भारतीयके ऊपर परवाना शुल्ककी जो रकम बकाया होगी उसका भुगतान, कमसे-कम दो सालके लिए दुबारा किये गिरमिटिया करार या नौकरीकी अवधिमें, स्थगित रहेगा, और ऐसे करार या गिरमिटकी अवधि समाप्त होनेपर यदि वह भारत वापस लौट जायेगा तो बकाया रकमका भुगतान माफ कर दिया जायेगा।

इस धाराका सही अर्थ समझने के लिए कुछ वर्ष पहलेकी बातोंको देखना जरूरी है। सन् १९०५ में यह देखा गया कि बहुत-से भूतपूर्व गिरमिटिया भारतीय तीन पौंडी कर नहीं दे रहे हैं और इसका सीधा-सादा कारण यह था कि वे इतने गरीब थे कि दे ही नहीं सकते थे। [१] फलस्वरूप एक अधिनियम बनाया गया जिसके अन्तर्गत कोई व्यक्ति किसी ऐसे भूतपूर्व गिरमिटियाको, जो अपना चालू वर्षका तीन पौंडी परवाना न दिखा सके, न तो नौकर रख सकता था, और न उसे भूमिका उपयोग करने दे सकता था। इस अधिनियमका उल्लंघन करनेका मतलब नौकरी देनेवाले व्यक्तिके लिए ५ पौंड जुर्माना था। अधिनियममें इस बातकी व्यवस्था थी कि मालिक ३ पौंड चुका दे और यह रकम भारतीयको मजदूरीमें से काट ले। इसमें इरादा यह था कि भारतीयोंको तीन-पौंडी कर देने या देश छोड़ देनके लिए विवश कर दिया जाये। उसी साल कुछ समय बाद एक अन्य अधिनियम बनाया गया जिसके अन्तर्गत कर देनेके लिए बाध्य भारतीयोंको यह अधिकार मिला कि वे दुबारा गिरमिटिया बन सकते है, पर गिरमिटकी अवधि कमसे-कम दो वर्ष होगी। ऐसा कर सकना पहले सम्भव नहीं था। भारत भिजवाये जानेकी जो सुविधा उसने ३ पौंडी कर देनेके बाद

  1. १. देखिए खण्ड ४, पृष्ठ ४४६ । इस करको अदा करनेवाले भारतीयोंकी कठिनाइयों अक्सर लोगोंके सामने आती रहती थीं; उदाहरणार्थ देखिए खण्ड ५, पृष्ठ २४२ । सन् १९११ में स्टंगरमें एक फेरीवालीको, अपनी गरीवीकी वजहसे यह कर देनेमें असमर्थ होनेके कारण, दो हफ्तेकी सजा दे दी गई थी। इंडियन ओपिनियन, ८-७-१९११)। सन् १८९१ के भारतीय प्रवासी अधिनियमके अनुसार गिरमिटिया भारतीयोंकी मजदुरी प्रथम वर्ष प्रतिमास १६ शिलिंग तय की गई थी, जो पाँचवें वर्ष में बढ़कर २० शिलिंग प्रतिमास तक पहुँचती (देखिए खण्ड १, पृष्ठ २१७-१९); जबकि सन् १९०१ के आसपास टान्सवालकी खानोंमें काम करनेवाले वतनी मजदूरोंको ४५ शिलिंग प्रतिमास दिया जाता था और मजदूरीकी इस दरपर भी वतनी मजदूर मिलना मुश्किल था; देखिए एरिक वॉकर-कृत हिस्ट्री ऑफ साउथ आफ्रिका, पृष्ठ ५१० । इन तथ्योंको देखते हुए गांधीजीने बराबर इस बातपर जोर दिया था कि भारतीय मजदूर इतना कम बचा सकते हैं कि कर देना उनके लिए बहुत ही भारी पड़ता है।