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१४८. देशमें अकाल


यह अकाल यद्यपि गुजरात काठियावाड़में पड़ा है, फिर भी हमने इसे “देशम अकाल" कहा है। शरीरके एक भागमें कष्टका होना समस्त शरीरको कष्ट होने के समान है, वैसे ही गुजरातका अकाल समस्त देशका अकाल कहा जा सकता है।

देशसे प्राप्त पत्रों और अखबारोंसे ज्ञात होता है कि यह अकाल पिछले सब अकालोंसे बाजी मार ले जायगा। मनुष्यों और पशुओं -- दोनोंका नाश हो रहा है। जान पड़ता है कि वर्षा ऋतुके अन्तिम दिनोंमें वहाँ पानी नहीं बरसा है। इसके कारण लोगोंकी जो दुर्दशा हुई है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता-- वह देखकर ही समझी जा सकती है। हमें यदि एक दिन भोजन नहीं मिलता तो हम अपना मिजाज खो बैठते है। हमें भोजनमें जिस वस्तुके खाने की आदत है वह नहीं मिलती तो हम घरवालीपर या रसोइयेपर इतना क्रोध करते हैं कि जिसकी सीमा नहीं। इसके बजाय अब यह कल्पना कीजिए कि हमें आठ महीने तक शायद ही भोजन मिलनेवाला है। शरीर अस्थिपंजर मात्र रह गया है, पेट पीठसे जा लगा है और शरीरको कोई सहारा दे तो ही वह खड़ा हो सकता है। इसकी कल्पना कर लें और फिर यह कल्पना करें कि ऐसी स्थिति लाखों लोगोंकी है। उसके बाद ही आप इस बातकी कुछ-कुछ कल्पना कर सकेंगे कि देशमें इस समय कैसी स्थिति है।

हम इसमें किस प्रकार सहायता दे सकते हैं ? पहली सहायता तो यही है कि हम अपने ऐश-आराममें कुछ कमी करें, अपना आडम्बर भी घटा दें, गर्व कम किया करें और चोरीमें भी कमी कर दें एवं अपने किये पापोंके लिए ईश्वरसे क्षमा मांगें। उसके बाद यदि हमारा मन शुद्ध हुआ दिखता हो तो हम ईश्वरसे प्रार्थना करें कि वह हमारे देशपर जो संकट आया है उसका निवारण करे।।

यदि हम इस प्रकारका आचरण करें तो हमारे पास धन बचेगा। हम इस धनका उपयोग अकाल-पीड़ितोंके लिए सहायता भेजने में कर सकते हैं। जो लोग धन भेजनकी व्यवस्था स्वयं न कर सकें उनसे रकम लेने और उनकी ओरसे उसे [ यथास्थान] भेजनेके लिए हम तैयार है। इस समय भी हम एक दानी सज्जनसे, जिसने अपना पैसा इसी काममें लगानेके लिए निकाल रखा है, पत्र-व्यवहार कर रहे है। हमें इस प्रकार जो रुपया भेजा जायेगा, उसे हम उक्त सज्जनको या जानी-मानी किसी संस्थाको भेज देंगे और उसकी प्राप्ति पत्रमें छापेंगे।

मुख्य बात यह नहीं है कि धन कैसे भेजें, बल्कि यह है कि उसे इकट्ठा कैसे करें। हमारा अभिप्राय यह है कि ऊपर सुझाये गये ढंगसे अपना मन सरल और शुद्ध करके जो व्यक्ति धन भेजेंगे उनका धन निःसन्देह अच्छे बीजोंकी तरह सुफलदायी होगा। {{Left|[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ११-११-१९११}

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