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एशियाई आचार-विचारपर हमला


लेखकने एशियाई व्यापारियोंके बारेमें लिखते समय उनके लिए 'कुली' शब्दका प्रयोग करने में भी संकोच नहीं किया है। तथापि हमारा इरादा लेखकसे उसके अज्ञानको या उसकी भावनाओंको लेकर झगड़नेका नहीं है। जिस सभ्यताका वह प्रतिनिधि है, अज्ञान उसका स्वाभाविक परिणाम है। कारण, यह सभ्यता मनुष्यकी दुर्बल देहसे ऐसी कठोर अपेक्षाएँ करती है कि उस देहधारीके लिए दुनियाके बारेमें बहुत ही छिछली-सी जानकारीके सिवा कोई अधिक गहरा ज्ञान पाना असम्भव है। और चंकि जिन लोगोंका लालन-पालन इस सभ्यतामें होता है उन्हें बराबर यही मानते रहनेकी तालीम दी जाती है कि वही सभ्यता सर्वश्रेष्ठ है, अत: यह स्वाभाविक ही है कि जो भी वस्तु उस सभ्यता द्वारा मनमाने ढंगसे निर्धारित कसौटीपर खरी न उतरे उसे वे हिकारतकी नजरोंसे देखें। और इस प्रकार हम देखते हैं कि लेखक एशियाई व्यापारीको इस कारण घृणाकी दृष्टिसे देखता है कि वह “जीवनकी साधारणतम सख-सविधाओंकी ओरसे उदासीन है।" ईसाई धर्मके प्रवर्तकने इन सुख-सविधाओंकी ओर कहीं अधिक उपेक्षा-भाव दिखाया था, और उसके रहन-सहनका तरीका एशियाई व्यापारीकी तुलनामें बहुत ही ज्यादा आदिम था। तिसपर भी हम बखूबी जानते हैं कि लेखकका मंशा ईसा मसीहकी निन्दा करनेका हरगिज न था।

अतः अब हमें जिस प्रश्नकी ओर ध्यान देना है वह यह नहीं है कि हम उक्त लेखक-सरीखे लोगोंको (और इसमें तो सन्देहकी बात ही नहीं है कि दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीयोंमें अधिकांश ऐसे ही हैं) संतुष्ट करें अथवा नहीं, बल्कि यह है कि क्या हमें उनके देशमें पैर जमाए रखनेके लिए अपने जीवनका सीधा-सादा तरीका छोड़कर वे चीजें अपना लेनी चाहिए जिन्हें हम आधुनिक जीवनके दुर्गुण समझते हैं। जिन्होंने ऐसा किया है वे हानि उठाकर यह जान चुके हैं कि वे उसकी बदौलत अपनेको यहाँ तनिक भी अधिक ग्राह्य नहीं बना पाये। उनका जन्मत: एशियाई होना तब भी पर्याप्त अपराध माना जाता है। दोनों प्रकारकी जीवन-पद्धतियाँ दक्षिण आफ्रिकामें साथ-साथ रहनेके लिए प्रयत्नशील है। प्रयोग दिलचस्प है। हम तो यही आशा कर सकते हैं कि यदि एशियाईको अपने-आपमें और अपनी सभ्यतामें विश्वास है तो वह अपनी सभ्यताको गिरायेगा नहीं। और हमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि जो सभ्यता यगोंकी कसौटीपर खरी उतर चुकी है वह उस कसोटीपर भी खरी उतरेगी जिसपर उसे इस उप-महाद्वीपमें कसा जा रहा है। परन्तु दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए मुठ्ठीभर एशियाइयोंको यह याद रखना है कि यदि वे अपनी जन्मभूमिको या अपनी जीवनपद्धतिको कलंकित नहीं करना चाहते तो उन्हें उसके अनुरूप ही आचरण करना है, उसकी विडम्बना नहीं रचनी है। प्राचीन कालसे आचरणके जो नियम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे हैं, उनका पूरा पालन करना है। उनके लिए ईमानदारी एक सर्वोत्तम नीति-मात्र नहीं है, जिसका उपयोग केवल तब किया जाये जब वैसा करना लाभदायक हो; बल्कि एक ऐसी चीज है जिसका पालन हर कीमतपर और हर परिस्थितिमें किया जाये। वे "जिसकी लाठी उसकी भैस" में विश्वास नहीं करते, उनकी लाठी तो उनके अधिकारकी न्याय्यता ही है। “समर्थ ही जीवित रहने का अधिकारी है",