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१९. पत्र: एल० डब्ल्यू० रिचको

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रविवार, अप्रैल ९, १९११

प्रिय रिच,

तुम्हें और पोलकको[१] पत्र[२] डाकमें डाल देने के बाद एक मजेदार बात हुई। मैंने सोचा जरा सदन तक चलूं और देखू कि वहाँ हो क्या रहा है। विषयक्रम[३] (आर्डर पेपर) पढ़नेके बाद मैंने सोचा कि वापस चला जाऊँ। किन्तु फिर सोचनेपर मैने डंकनको[४] अपना कार्ड भेजना तय किया। वे आये और बोले : “कदाचित् हमारा बात न करना

अच्छा होगा; लोग ऐसा न सोचें कि आप मुझपर प्रभाव डाल रहे थे।" मैंने कहा : 'हर्गिज नहीं। मैं अपनी गतिविधियोंकी सूचना लेनको देता रहा हूँ। वे जानते है कि मैं किससे मिलता और बात करता हूँ।" उन्होंने कहा : “किन्तु आपको चिन्ता करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। मेरा खयाल है, आप जो-कुछ चाहते है वह आपको मिलेगा। अब यह मसला निबटा देनेका समय आ गया है।" मैने कहा : 'किन्तु क्या आपको नवीनतम स्थितिके सम्बन्धमें कुछ मालूम है?" उन्होंने कहा: 'हाँ,जनरल स्मट्सने मुझे उनके नाम लिखा आपका पत्र[५] दिखाया था। मेरा खयाल है, हम

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  1. हेनरी सॉलोमन लिऑन पोलका प्रारम्भमें ट्रान्सवाल क्रिटिकके सहायक सम्पादक, लेकिन बादमें जोहानिसबर्गके निरामिष उपाहारगृहमें गांधीजीसे परिचय होनेके बाद इंडियन ओपिनियन में काम करना शुरू किया । “जो बात उनके दिमागमें उतर जाती थी उसे कार्यरूप देनेकी उनमें अद्भुत क्षमता थी।" गांधीजीके शब्दोंमें “जिस चावसे बतख जलमें रहता है" उसी चावसे उन्होंने फीनिक्सकी जिन्दगी अपना- ली और “हम लोग सगे भाइयोंकी तरह रहने लगे।" उनकी शादी में गांधीजीने शहबालाका भी काम किया । सन् १९०६ में, जब गांधीजी इंग्लैंडमें थे, वे इंडियन ओपिनियनके सम्पादक हुए और गांधीजीके साथ कुछ दिनों तक काम सीखनेके बाद सन् १९०८ में अटर्नी हो गये । सन् १९१३ के ट्रान्सवाल प्रवेशके महान् कूच (“ ग्रेट मार्च") में गिरफ्तार हुए; आफ्रिकावासी भारतीयोंके मामलेमें सहायता देनेके लिए भारत और इंग्लैंडकी यात्रा की। देखिए आत्मकथा, भाग ४, अध्याय १८, और २२ तथा दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास, अध्याय २३ और ४५ ।
  2. देखिए “ पत्र : एल० डब्ल्यू. रिचको", पृष्ठ १५-१६ । पोलकको लिखा पत्र उपलब्ध नहीं है।
  3. इसमें क्रिश्चियन बोथाके संशोधनकी सूचना भी दी गई थी। बोथाके इस संशोधनका उद्देश्य प्रस्तावित प्रवासी कानूनमें ऑरेंज फ्री स्टेटके संविधानके ३३ वें अध्यायको बरकरार रखना था ।
  4. पैट्रिक डंकन; ट्रान्सवाल विधान सभाके सदस्य; ट्रान्सवाल्के उपनिवेश-सचिव १९०३-०६, सन् १९०६ में भारतीयोंके विरोधके बावजूद ट्रान्सवाल एशियाई कानून संशोधन अध्यादेशको पास करवानेमें पहल की; किन्तु इंडियन ओपिनियनके स्वर्ण जयन्ती (१९१४) अंकमें उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा गया कि अब वे इस बातको ज्यादा समझने लगे है कि भारतीय प्रश्नसे "साम्राज्यके हितोंका सम्बन्ध" है और इसीलिए उन्होंने भारतीयोंको राहत देनेके उपाय करनेपर जोर दिया है।"
  5. देखिए पत्र: ई०एफ० सी० लेनको", पृष्ठ ९-१० ।