तुमने डर्बनकी हालतका जो चित्र खींचा है, उससे मैं निराश नहीं होता। क्या हिन्दू और क्या दूसरे, खासकर हिन्दू, विदेश यात्रा तो तभी करते हैं जब वे भ्रष्ट हो जाते हैं। परोपकारके लिए विदेश जानेवाले तो बहुत ही थोड़े मिलेंगे। हम लोग भी जब निकले थे तब मनमें कोई उच्च विचार नहीं थे। अतीतमें हमने कोई पुण्य-कर्म किया होगा, इसीलिए हमारी दृष्टि किंचित् निर्मल है। हिन्दुओंका आचार-विचार सब यहाँ भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए वे अधिक अधम दशाको प्राप्त हुए दिखते हैं। दोनों पक्ष हिन्दू-मुसलमानका भेद रखते हैं, इसीलिए आंगलिया[१] सेठ-जैसे व्यक्ति वैसा सवाल उठाते हैं जिसका तुमने जिक्र किया है। लेकिन यह तो तुमने देख ही लिया होगा कि काम करनेवाले दो-चार [निष्ठावान] आदमी भी हों तो काम चल सकता है।
'गुलीवर्स ट्रैवल्स' अभी तक न पढ़ी हो तो किसी समय पढ़ लेना। तमिलके अभ्यासका क्या हाल है?
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू० ५६२७) से।
सौजन्य : राधाबेन चौधरी।
२३. पत्र: एल० डब्ल्यू. रिचको
७ बिटेनसिंगल [स्ट्रीट
केप टाउन]
अप्रैल ११, १९११
प्रिय रिच,
आज कोई खबर नहीं है। तुम्हारा मद्रास-सम्बन्धी तार मिला। मैं अभी लेनके पास जा रहा हूँ और तब तय करूँगा क्या उत्तर देना ।
हृदयसे तुम्हारा,
मो० क० गांधी
[पुनश्चः]
स्मट्सका जवाब[२] है कि अगले सप्ताहसे पहले कुछ मालूम नहीं होगा। अधिक कल ।
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५४५०) की फोटो-नकलसे ।
- ↑ एम० सी० आंगलिया; डबनके एक प्रमुख मुस्लिम सज्जन और नेटाल भारतीय कांग्रेसके संयुक्त मन्त्री; ट्रान्सवाल एशियाई पंजीयन अधिनियमके विरुद्ध छेड़े गये सत्याग्रह आन्दोलनमें भाग लेनेपर कैद और निर्वासन भोगा; सन् १९०९ नेटाल शिष्टमण्डलके सदस्यके रूपमें इंग्लैंड गये; देखिए. खण्ड ८, पृष्ठ ४७९ और खण्ड ९, पृष्ठ ३३७ और ३४३ ।
- ↑ देखिए परिशिष्ट १ ।