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२८. पत्र: एल० डब्ल्यू० रिचको

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गुरुवार रात्रि,}
[अप्रैल १३, १९११][१]

प्रिय रिच,

आशा है, तुमने मेरा तार[२] समझ लिया होगा।

मेरा खयाल है कि जबतक यह मामला अनौपचारिक रूपसे ही सही, किन्तु पूर्णतः तय न हो जाये तबतक सार्वजनिक सभा करना ठीक नहीं है। यदि शिष्टमण्डल मामलेपर विचार करने के लिए सार्वजनिक सभा की जाये और फिर उसमें उसके विरुद्ध निर्णय हो तो इसका अर्थ गलत लगाया जा सकता है।[३]

मेरा निश्चित मत है कि ऐसे किसी भी शिष्टमण्डलमें एक मुसलमान अवश्य होना चाहिए। स्मरण रखो, इस बार शिष्टमण्डल किसी स्पष्ट प्रश्नको लेकर नहीं जायेगा। व्यापारियोंके विशेष हितोंपर विचार किया जायेगा। और यदि उसको प्रभावशाली बनाना है तो शिष्टमण्डलमें एक व्यापारी, और वह भी मुसलमान, अवश्य होना चाहिए। मुझे इस बारेमें कोई सन्देह नहीं है कि वह व्यापारी श्री काछलिया ही हों। यदि समाज कमजोरीके कारण किसी शरारती व्यक्तिको चुन देगा तो अन्तत: उसको हानि पहुँचेगी। समाजको अब कमजोर लोगोंसे यह कहने के लिए तैयार हो जाना चाहिए: 'चूंकि आप कमजोर हैं, इसलिए आप समाजका प्रतिनिधित्व' नहीं कर सकते। मेरा यह पक्का विश्वास है कि समाजने कमजोरी दिखाई है और उसके मनमें शरारती लोगोंका डर समाया हुआ है; संघर्षके लम्बे खिंचनेका यही कारण है। खर्चके बारेमें भी कोई खींचतान नहीं होनी चाहिए। यदि शिष्टमण्डलको जाना ही है तो समाजको उसे उदारतापूर्वक धन देना होगा और सो भी तुरन्त । मेरे वहाँ लौटने के बाद मुझे बहुत ही थोड़ा समय मिल पायेगा; हर बार रुपया ऐन वक्तपर आया है। मेरा सुझाव है कि पूरी रकम अभी इकट्ठी हो जाये। मैं नहीं चाहता कि बादमें तुम्हें या किसी दूसरे व्यक्तिको धन-संग्रहके सम्बन्धमें चिन्ता करनी पड़े।

तुम यह पत्र हेनरीको[४] भेज दो, क्योंकि मैं यह बात उनके पत्रमें[५] नहीं दोहराऊँगा।

  1. देखिए पिछले शीर्षककी दूसरी पाद-टिप्पणी ।
  2. यह उपलब्ध नहीं है।
  3. इसका उत्तर देते हुए श्री रिचने अपने १७-४-१९११ के पत्रमें इस प्रकार लिखा : “मैंने सभाके सम्बन्धमें आपका अभिप्राय ठीक-ठीक समझ लिया था; योजना छोड़ दी गई है । आपने जो कारण बताये हैं, उनसे बिलकुल सहमत हूँ।" (एस० एन० ५४६९)
  4. एच० एस० एल० पोलक ।
  5. यह उपलब्ध नहीं है।