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प्रार्थनापत्र : उपनिवेश-मन्त्रीको


समाजके लोगोंकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रतामें अकारण विघ्न उपस्थित करते हैं, किन्तु, ट्रान्सवालके भारतीय तबतक चैनसे नहीं बैठ सकते जबतक प्रान्तकी विधि-पुस्तकसे उस कानूनका दाग नहीं धो दिया जाता जो उन्हें ट्रामगाड़ियों और पैदल पटरियोंके उपयोगसे वंचित करता है।[१] जबतक सामान्यतया भारतीयोंको दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंकी श्रेणी में रखा जाता रहेगा तबतक उन्हें परेशान करनेवाली हरकतोंका भी अन्त नहीं होगा।

कानून-जिसके बननेकी आशंका है

यह संघ नम्रतापूर्वक महामहिमकी सरकारका ध्यान संघ-सरकारके इस वादेकी ओर भी आकर्षित करता है कि वह भारतीयोंको दिये गये अनुमतिपत्रोंके प्रश्नका निपटारा करेगी । संघको ज्ञात है कि इस प्रान्तके विभिन्न व्यापारिक संघोंने, जिनके अधिकांश सदस्य प्रतिस्पर्धी यूरोपीय व्यापारी है, कुछ प्रार्थनापत्र तैयार करवाये हैं और वे संघ-संसदके नाम भेजे गये हैं। इन प्रार्थनापत्रोंमें अतिरंजित और भड़कानेवाली बातें लिखी गई है, जो ब्रिटिश भारतीयोंके हितोंके लिए हानिप्रद है। उनमें सरकारसे ब्रिटिश भारतीयोंके व्यापारिक अनुमतिपत्रोंकी संख्या कम करने, और यहाँ तक कि उन्हें सर्वथा समाप्त कर देनेकी प्रार्थना की गई है।[२] चूंकि ट्रान्सवालमें भारतीयोंकी आबादी अपेक्षाकृत बहुत कम है और भविष्यमें इसमें विशेष वृद्धि होनेकी सम्भावना भी नहीं है इसलिए संघकी उत्कट अभिलाषा है कि महामहिमकी सरकार भारतीयोंके व्यापारपर किसी प्रकारका प्रतिबन्ध स्वीकार न करे। संघका नम्र निवेदन है कि उपर्युक्त प्रार्थनापत्रोंमें गन्दगी आदिकी आदतोंको लेकर भारतीय समाजके विरुद्ध जो आपत्तियाँ उठाई गई है उनमें से अधिकांश अतिरंजित है। किन्तु तथ्योंकी हद तक तो उनका निराकरण नगरपालिकाके सामान्य स्वास्थ्य विनियमोंके अन्तर्गत आसानीसे किया जा सकता है - और किया भी जा रहा है।

अन्तमें, संघको भरोसा है कि महामहिमकी सरकार उपर्युक्त ट्रान्सवालवासी ब्रिटिश भारतीय प्रजाजनोंकी स्थिति सुधारनेके लिए और उनके वर्तमान अधिकारोंकी रक्षाकी दृष्टिसे उचित और आवश्यक कार्रवाई करेगी। न्याय और दयाके इस कार्यके लिए प्रार्थी कर्तव्य' मानकर आपकी मंगल-कामना करेगा।

अ० मु० काछलिया
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ

[ अंग्रेजीसे]}
कलोनियल आफिस रेकर्ड्स : ५५१/२२

  1. ब्रिटिश भारतीय संघने स्थानीय अधिकारियों तथा औपनिवेशिक और साम्राज्य-सरकारोंसे बार-बार इन नियोग्यताओं के सम्बन्धमें शिकायतें की थीं; देखिए खण्ड ४, पृष्ठ १५७-५८ और खण्ड ५, पृष्ठ ३४५-५४ ।
  2. उदाहरणार्थ देखिए खण्ड ८ पृष्ठ २०२-०३ ।