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पत्र: डॉ० प्राणजीवन मेहताको


जेलमें बहुत सोचता-विचारता रहा। फिर उसने इस अवधिमें मेरे जीवनमें जो अनेक बड़े परिवर्तन हुए हैं, उन्हें देखा, मेरा वसीयतनामा भी देखा। मालूम होता है कि उसके मनपर इन सब घटनाओंका अनजाने प्रभाव पड़ता रहा है। मेरा विश्वास है कि उसकी नैतिक निष्ठा दृढ़ है, इसलिए उसके विषयमें मैं निर्भय हूँ। मैने उसे लिखा हैं कि उसे मुझसे छिपकर कोई कदम नहीं उठाना चाहिए था।[१] अगले हफ्ते में इस विषयकी ज्यादा जानकारी दूंगा।

नेटालसे छ: शिक्षित सत्याग्रहियोंको यहाँ बसनेकी अनुमति मिली है। यदि वे अपने जीवनका बाकी भाग अथवा कमसे-कम १० वर्ष हमारे बताये हुए सार्वजनिक कार्यमें व्यतीत करनेके लिए तैयार हों, तो मुझे लगता है कि उन्हें आपके खर्चसे एक वर्षके लिए विलायत भेज दूं। ऐसे दो या तीन व्यक्ति हैं। शायद ज्यादा भी हों। भेजनमें आपकी सम्मति चाहता हूँ। यदि आपकी सम्मति हो, तो “गांधी जोहानिसबर्ग यस"[२] ऐसा तार कर दीजिए और मैं समझ लूंगा। ऐसा नहीं है कि वे अविलम्ब चले जायेंगे। उनके साथ बातचीत कर रहा हूँ। भेजनेका इरादा तभी है जब वे "हाँ" कहें और मुझे सन्तोष हो जाये। मेरी इच्छा तो यह है कि फिलहाल उन लोगोंको फीनिक्समें खेती तथा करघेका काम सिखाया जाये और इसके साथ ही वे प्रेसका काम भी सीखते रहें। इस प्रकार वे ठीक तैयार हो जाये तो उन्हें भारत भी भेजा जा सकता है। मेरी इच्छा ऐसा ही काम भारतमें भी शुरू करनेकी है। हो सकता है, यहाँ वह कुछ अधिक महँगा सिद्ध हो, किन्तु मेरा खयाल है कि यह काम यहीं ज्यादा आसान रहेगा।

भारतीय युवक यहाँ चरित्र-बलका ज्यादा अच्छा परिचय दे सकते हैं। पुरुषोत्तम दास[३] अपनी इन्द्रियोंपर जैसा अंकुश यहाँ रखता है और रख सकता है वैसा वहाँ नहीं रख सकेगा। उसकी पत्नीको भी यहाँ जो स्वतन्त्रता प्राप्त है और जैसी सरलता से वह यहाँ रहती है, वैसा हमारे वर्गके लोगोंके बीच फिलहाल भारतमें सम्भव नहीं है, ऐसा मैं देखता हूँ। मैं बराबर यह सोचता रहता हूँ कि यहाँ कुछ लोग अच्छी तरह तैयार हो जायें, तो एक बड़ा काम हो जाये। जो व्यक्ति दस वर्ष तक काम करनेका वचन दें, उनका भरण-पोषण तो हमें करना ही होगा। इसके साथ पुरुषोत्तमदासका पत्र है,[४] उसे देख लीजिएगा। पत्रमें व्यक्त विचारोंके अमलमें मेरा कोई हाथ नहीं है। वेस्ट इत्यादिने ऐसे विचारोंका अमल अपनी ही समझके अनुसार किया है। छोटाभाईकी मुकदमेमें मैंने बहुत परिश्रम किया है। इसके लिए छोटाभाईने मुझे कुछ देनेकी इच्छा

प्रकट की। मैंने अपने लिए कुछ लेनेसे इनकार कर दिया। अब उन्होंने मुझे ३०० पौड यह कहकर दिये हैं कि मैं अपनी इच्छाके अनुसार उनका उपयोग करूं।[५] यह पैसा

११-५

  1. अर्थात् गांधीजीको सूचित किये बिना घरसे चला जाना ।
  2. गांधी जोहानिसबर्ग हो।"
  3. पुरुषोत्तमदास देसाई; कुछ दिनों तक फीनिक्सकी पाठशाला इन्हींकी देख-रेखमें थी।
  4. यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
  5. देखिए “पत्र : ए०ई० छोटाभाईको", पृष्ठ ६० और “श्री छोटाभाईकी भेंट", पृष्ठ ६८ ।