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११४. पत्र : ए॰ एच॰ वेस्टको

[साबरमती]
फरवरी १३, १९१८

प्रिय वेस्ट,

मैं आशा करता हूँ कि मेरे सब पत्र तुम्हें मिल गये होंगे।[१] मुझे तुम्हारे दो पत्रोंकी पहुँचकी सूचना देनी बाकी है। सचमुच मुझे नहीं सूझता कि क्या लिखूँ। रिच और डीबियरके पत्र मैंने पढ़े हैं। अपने दृष्टिकोणके अनुसार वे सही हैं। मेरी रायसे तो अच्छे किसान बनकर तुम अपने आदर्शकी अधिक अच्छी सेवा कर सकोगे। मणिलालकी जोहा-निसबर्गसे दी हुई सलाह मुझे पसन्द नहीं आई। उसे फीनिक्समें रहकर गुजराती विभाग[२] सँभालना चाहिए। किन्तु जैसा मैंने कहा है, अन्तिम निर्णय तुम्हारा होगा। तुम्हें जो अच्छा लगे, वही तुम्हें करना चाहिए। अपनी तरफसे तो मैं कहता हूँ कि सम्पत्ति जितनी मेरी है, उतनी ही तुम्हारी भी है। यही बात हमारे आदर्शकी है। फीनिक्सके सम्बन्धमें इतना कहकर यहाँके अपने कामके बारेमें कहूँगा। मैं पत्र कम लिखता हूँ—इससे यही जाहिर होता है कि यहाँ मैं कितना व्यस्त हूँ। मैं इतना काम करता हूँ कि सबको आश्चर्य होता है। किन्तु कोई भी काम मैं ढूँढ़ने नहीं गया। काम जैसे-जैसे आता गया, वैसे-वैसे मैंने हाथमें ले लिया। बिहार धारा-सभामें कानून बनानेका जो काम हो रहा है, उसपर निगाह रखनेके अतिरिक्त, मैंने वहाँ कुछ पाठशालाएँ भी खोली हैं और उनको चला रहा हूँ। उनकी व्यवस्था देखनी पड़ती है। शिक्षक आम तौरपर विवाहित हैं। पति और पत्नी दोनों काम करते हैं। हम गाँवके बच्चोंको पढ़ाते हैं; पुरुषोंको स्वास्थ्य और सफाई सिखाते हैं। देहातकी स्त्रियोंसे भी मिलते हैं और उन्हें पर्दा छोड़ देने और अपनी लड़कियोंको हमारी पाठशालामें भेजनेकी बात समझाते हैं। हम दवा मुफ्त देते हैं। रोजमर्राकी इन परिचित बीमारियोंका हम साधारण इलाज करते हैं। इसलिए यह काम तालीम न पाये हुए स्त्री-पुरुषोंको, अगर वे दूसरी तरहसे विश्वासपात्र हों, सौंपनेमें मुझे कोई आपत्ति नहीं दीखती। उदाहरणके लिए, श्रीमती गांधी एक पाठशालामें काम करती है और बड़े मजेसे दवाइयाँ भी देती है। अबतक हम शायद मलेरियाके तीन हजार रोगियोंको राहत पहुँचा चुके हैं। हम देहातके कुएँ और रास्ते साफ करते हैं और इसमें ग्रामवासियोंका सक्रिय सहयोग लेते हैं। अबतक हमने तीन पाठशालाएँ खोली हैं। उनमें लड़के और बारह वर्षसे नीचेकी लड़कियाँ मिलाकर २५० से ऊपर विद्यार्थी हैं। सारे शिक्षक स्वयंसेवक हैं।

 
  1. देखिए खण्ड १३।
  2. इंडियन ओपिनियनका