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११८. पत्र : डाह्यालालको

[साबरमती]
फरवरी १५, १९१८

भाईश्री डाह्यालाल,

आपका कार्ड मिला। भाई अमृतलालकी मृत्युका समाचार पढ़कर मनमें बहुत विचार आते हैं। अभी-अभी भाई नवलरामने खबर दी है कि आपके साथियोंमें से कुछ और भी प्लेगके बीमारोंकी सेवा करते-करते चल बसे। अगर सब इस तरह सेवा करते-करते गये हों तो मुझे इसमें खेदका कोई कारण नहीं दिखाई देता, बल्कि यह तो हर्षका कारण है। हम सबके लिए ऐसी मृत्यु वांछनीय है। 'संग्राममें प्राप्त मृत्युसे अधिक इष्ट मृत्यु नहीं हो सकती', यह उक्ति इस सम्बन्धमें लागू होती है। शरीर तो जब जीर्ण हो जायेगा, तब नष्ट होगा ही। हम यह चाहते भी हैं कि वह नष्ट हो जाये। इसलिए हम मान लें कि भाई अमृतलाल, मोतीलाल और उनके साथियोंकी आत्माएँ नये और अधिक समर्थ शरीर धारण करके समय आनेपर भारतकी सेवा करेंगी।

भाई अमृतलालके परिवारको मेरी ओरसे सान्त्वना दें।

भाई मोतीलालकी पत्नीको, जहाँतक हो सके, जल्दी यहाँ भिजवानेका प्रयत्न करें। यह भी एक सेवा होगी।

मो॰ गांधीके वन्देमातरम्

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४

११९. पत्र : आनन्दीबाईको

[साबरमती]
फरवरी १६, १९१८

आपकी भाभी चल बसीं, यह सुनकर बहुत दुःख हुआ। किन्तु आपको आत्माका ज्ञान है, यह मुझे मालूम है। इसलिए मुझे विश्वास है कि यह बात आसानीसे समझ जायेंगे कि असलमें जन्म और मरण ये दोनों स्थितियाँ एक ही जैसी हैं। फिर भी मृत्युके समय दुःखी होना मनुष्यका स्वभाव बन गया है। मैं आपके इस दुःखमें शरीक होना चाहता हूँ, इसलिए प्रार्थना करता हूँ कि आपको जितनी शान्ति मिल सकती हो मिले। आप जैसे लोगोंके लिए, जिन्होंने सेवा करनेका निश्चय और संकल्प किया