पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/१३

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भूमिका

इस खण्डमें अगस्त १९१९ से जनवरी १९२० तककी छ: महीनोंकी सामग्री एकत्रित है। इस अवधिमें जो शान्ति रही वह ठीक अर्थों में शान्ति नहीं थी, उसके पीछे एक बेचैनी थी, जो बादमें तूफान बनकर उमड़ी और जिसके कारण अनेक आशाएँ निराशामें बदल गई। गांधीजीने १९१९ के पहले नौ महीनोंका वर्णन करते हुए लिखा है: “इस ओर हिन्दुस्तानमें चारों तरफ निराशा दिखाई देती है। युद्धके अन्तमें हिन्दुस्तानको कुछ ठोस चीजें मिलनेकी आशा थी, लेकिन कुछ भी नहीं मिला। एक तो सुधारोंका दिया जाना ही कठिन है; दिये भी गये तो वे लगभग व्यर्थ ही होंगे।

... जो हो जाये गनीमत है। पंजाबपर कहर बरपा; निरपराध व्यक्ति मारे गये; . . . अधिकारियों तथा लोगोंके बीच अविश्वासकी खाई और भी चौड़ी हो गई।" (पृष्ठ २६७) गांधीजीके कथनानुसार इस समय “निराशाके गहन बादलों" में अगर कहीं कोई आशाकी किरण थी, तो वह था सत्याग्रहका उदय


रौलट अधिनियम जो १९ अप्रैलकी उथल-पुथलका कारण था, रद नहीं हुआ था। गांधीजीने इस बातपर दुःखी होकर पूछा: “जनताकी इच्छा सर्वोपरि रहे या सरकारकी?" (पष्ठ २५) सबसे पहले तो गांधीजीने रौलट अधिनियमको रद कराने के लिए पूरानी पद्धति अर्थात अनुशासित आन्दोलन और लोगोंमें तथ्यों के प्रचार सहारा लिया। उन्होंने कांग्रेस और लोग द्वारा दिये गये स्मरणपत्र-जैसी एक सार्वजनिक याचिका की सलाह दी। अखिल भारतीय होमरूल लीगने तदनुसार एक याचिका तैयार की और गांधीजीने जनतासे उसपर हस्ताक्षर करनेकी अपील की। (पृष्ठ ५८) जब यह सुना गया कि श्री मॉण्टेग्यु कहते हैं कि रौलट अधिनियम कभी रद नहीं किया जायेगा, तो गांधीजीने जवाबमें कहा कि ट्रान्सवाल एशियाई अधिनियमके विषयमें जनरल स्मट्स यही कहा करते थे, किन्तु भारतीयोंके सत्याग्रहने उन्हें इस बातपर मजबूर कर दिया कि प्रवासी कानून में से रंगभेद हटाया जाये और वह १९१४में हटाया गया। सरकारकी अकड़के कारण गांधीजीने अपना रुख सख्त किया और यह समझ लिया कि सविनय अवज्ञा ही रौलट अधिनियम का उत्तर है, याचिका आदि प्रस्तुत करने जैसी वैधानिक कार्रवाइयोंसे कुछ होना-जाना नहीं है।


इस अवधिमें गांधीजी ज्यादातर पंजाबके मामलेको लेकर व्यस्त रहे। सरकारके दमनके कारण लोगोंको जो कष्ट उठाने पड़े थे उनसे उन्हें बहुत पीड़ा पहुंची थी। इसलिए उन्होंने राहत देनेके लिए स्वयं सक्रिय रूपसे संगठनात्मक कदम उठाये। लोगोंको बिना सोचे-समझे अन्यायपूर्वक जेलकी लम्बी-लम्बी सजाएँ दी गई थीं। उन्होंने अपने पत्रके स्तम्भोंमें इसके खिलाफ बार-बार लिखा : "अपनी वकालतके पूरे अर्सेमें, जो कम नहीं है-मैंने लगातार करीब २० साल वकालत की है-- मैंने कभी ऐसे मुकदमे नहीं देखे जिनमें हाफिजाबादके मुकदमेकी तरह इतनी गैर-संजीदगी और इतने बेहद कमजोर सबूतके आधारपर फाँसीको सजायें सुना दी गई हों।” (पृष्ठ ४९)