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है। उन्होंने दावा किया कि यदि आत्मबलका उपयोग सत्य-रक्षाके लिए किया जाये तो बड़ीसे-बड़ी शारीरिक शक्ति भी उसके सामने झुक जाती है। उन्होंने कहा, वे इसी तथ्यको संसारके सामने रखना अपने जीवनका उद्देश्य मानते हैं। उन्होंने पत्र-लेखक "पेनसिलवेनियन" को जवाब देते हुए लिखा कि सत्याग्रह खालिस नैतिक कान्ति है और सविनय प्रतिकार उसका आवश्यक अंग। (पृष्ठ ५३) भगवद्गीता की लोकमान्य तिलकने जो व्याख्या की थी, गांधीजीने उसकी आलोचना की और कहा कि बुराईका जवाब बुराईसे देना ईश्वरीय नियम नहीं है। ईश्वरीय नियम तो बुराईका जवाब अच्छाईसे देना है। (पृष्ठ ५१०-११)

उपद्रव जाँच समितिके सामने गांधीजी द्वारा दी गई गवाही एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण आलेख है। ५ जनवरीको उन्होंने समितिको अपना वक्तव्य दिया। प्रारम्भमें उन्होंने सत्याग्रह शास्त्रको संक्षिप्त रूपरेखा दी और फिर थोड़े में रौलट अधिनियमके विरुद्ध हुए आन्दोलनका विवरण पेश किया। पंजाब और अहमदाबादकी घटनाओंका उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि मैं यह नहीं मानता कि “इन हिंसात्मक उपद्रवोंके पीछे कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन काम कर रहा था। इन उपद्रवोंको तो "विद्रोह" की संज्ञाका गौरव भी नहीं दिया जा सकता।" (पृष्ठ ३८३) अप्रैल १९१९ में की गई सार्वजनिक हड़तालके उद्देश्यको स्पष्ट करते हए उन्होंने कहा कि उनके विरुद्ध नियंत्रणका आदेश "मुझे अपने शान्ति कार्यसे विमुख करने” (पृष्ठ ४००) की नीयतसे जारी किया गया था। उन्होंने अहमदाबाद और वीरमगांवके हिंसक कृत्योंको भी गलत कहा और घोषित किया कि वह "अर्ध-शिक्षित, अधकचरे नौजवानों" (पृष्ठ ४०३) का काम था। उन्होंने यह भी कहा कि सत्याग्रह मुल्तवी करने का कारण यह नहीं था कि जनतामें सत्याग्रह करने की योग्यता नहीं है, बल्कि उसका कारण यह था कि समय उसके उपयुक्त नहीं था। (पृष्ठ ४३०-३१) सत्याग्रहका उपद्रवोंसे सम्बन्ध जोड़ना उन्होंने गलत माना। इसके बाद उन्होंने समितिके सामने रौलट अधिनियमके उद्देश्य स्पष्ट किये और कहा: "अगर सत्याग्रह न किया गया होता तो भारतको जो नजारेदेखने पड़े उनसे भी कहीं अधिक भयंकर नजारे उसे देखने पड़ते।” (पृष्ठ ४८०)

भारतके त्रिविध ताप-भूख, वस्त्राभाव और रोग -- गांधीजीके लेखे स्वदेशीसे ही समाप्त हो सकते है। उन्होंने कहा कि प्राचीन कालकी तरह कातना किसानोंमें फिरसे शुरू किया जा सकता है और भारतका प्रत्येक गाँव इनके बलपर आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। यह एक क्रान्तिकारी कदम है और देशमें जैसे-जैसे शक्ति आयेगी, वह इसे अधिकाधिक अपना सकेगा। (पृष्ठ ७) वे स्वदेशी आन्दोलनको राष्ट्र-जीवनका पोषण करनेवाला, दरिद्रोका त्राता और स्त्रियोके शीलका संरक्षक आन्दोलन मानते थे। इस उपायसे देश ज्यादा सीधे ढंगसे स्वतंत्र किया जा सकता था। किन्तु उन्होंने स्वदेशी व्रत और बहिष्कारका अन्तर भी स्पष्ट किया और कहा कि बहिष्कार क्रोधका चिह्न है और उससे हमारी दुर्बलता व्यक्त होती है।

देशको इन तमाम जबरदस्त और तात्कालिक समस्याओंसे घिरे रहकर भी गांधीजी दक्षिण आफ्रिकी परिस्थितियोंसे उत्पन्न होनेवाली खराबियोंसे जनताको अवगत रखनेका