४६. चरखेका संगीत[१]
धीरे-धीरे ही सही लेकिन निस्सन्देह, भारतके कदाचित् सबसे पुराने यन्त्रका संगीत हमारे समाजमें एक बार फिर व्याप्त होने लगा है। पंडित मालवीयजीने कहा है कि जबतक भारतकी रानी-महारानियाँ सूत नहीं कातने लगतीं, और राजे-महाराजे करघोंपर बैठकर राष्ट्रके लिए कपड़े नहीं बुनने लगते तबतक उन्हें सन्तोष नहीं होगा। उन सबके सामने औरंगजेबका उदाहरण है, जो अपनी टोपियाँ खुद ही बनाता था। और उससे भी बड़े बादशाह——कबीर——खुद एक जुलाहे थे और अपने काव्यमें उन्होंने इस कलाको अमर बना दिया है। जब यूरोप शैतानके चंगुलमें नहीं फँसा था, उन दिनों वहाँकी रानियाँ भी सूत कातती थीं और इसे एक अच्छा काम मानती थीं। अंग्रेजीमें कुमारी और पत्नीके लिए जो शब्द है, वे अंग्रेजीके कताई और बुनाईके अर्थोंमें प्रयुक्त धातुओंसे व्युत्पन्न हैं। इस बातसे इस कलाकी प्राचीन गरिमा सिद्ध है। "जब आदम जमीन गोड़ता था और हौवा सूत कातती थी, उस समय जिसे हम सभ्य व्यक्ति कहते हैं, ऐसा कौन था?"——यह वाक्य भी इसी तथ्यका सूचक है। फिर आश्चर्य नहीं, अगर पंडितजी भारत के राज-परिवारोंको हमारी पवित्र भूमिके इस प्राचीन धन्धेको पुन: प्रारम्भ करनेके लिए राजी कर लेनेकी आशा रखते हैं। भारतकी समृद्धि और सच्ची स्वतन्त्रता शस्त्रास्त्रोंकी झनझनाहटपर निर्भर नहीं करती। इसकी स्वतन्त्रता और समृद्धि तो, बहुत ज्यादा अंशोंमें, घर-घरमें एक बार फिर चरखके संगीतको गुंजरित कर देनेपर निर्भर करती है। इसका संगीत हारमोनियम, कांसर्टिना और एकॉर्डियन आदि बेहूदे वाद्योंके संगीतसे अधिक मधुर, अधिक लाभदायक है।
दरअसल पंडितजी जिस सुन्दर ढंगसे भारतीय राज-परिवारोंको चरखेको अपनानके लिए राजी करनेकी कोशिश कर रहे है, वह किसी दूसरेके लिए सम्भव नहीं। और इधर पंडितजी है तो उधर सरलादेवी चौधरानी। वे तो स्वयं ही एक ऐसे परिवारकी हैं जो भारतके राज-परिवारोंकी श्रेणीमें आता है, फिर भी उन्होंने यह कला सीख ली है और मन-प्रागसे इस आन्दोलनमें शामिल हो गई हैं। उनके सम्बन्धमें स्वयं उनसे और दूसरोंसे मुझे जो-कुछ भी मालूम हुआ है, उस सबसे यही पता चलता है कि उन्हें स्वदेशीकी लगन लग गई है। उनका कहना है कि मलमलकी साड़ी पहनना उन्हें अटपटा लगता है और गर्मीके मौसममें भी वे खद्दरकी साड़ी ही पहनती हैं। सचाई यह है कि स्वदेशीका जितना प्रचार उनकी जिह्वा और वाणीसे नहीं होता, उतना ही प्रचार उनकी खद्दरकी साड़ियोंसे हो रहा है। वे अमृतसर, लुधियाना तथा और भी बहुत-सी जगहोंमें आयोजित सभाओंमें इस विषयपर बोल चुकी हैं और इस तरह अपनी अमृतसरको बुनाई समिति के लिए उन्होंने श्रीमती रतन चन्द, बुग्गा चौधरी तथा रतनदेवीकी सेवाएँ प्राप्त की है। ये वही विख्यात रतनदेवी हैं जो १३ अप्रैलकी उस
- ↑ देखिए "स्वदेशी", १८-७-१९२० ।