धर्मके साथ इतना बड़ा अन्याय किया जाये और वे उसे सिर झुकाकर सह लें। और सारे भारतके लिए असंवैधानिक यह है कि वह चुपचाप बैठा रहे और उस अन्यायी सरकारके साथ सहयोग करे जिसने पंजाबके आत्म-सम्मानके साथ खिलवाड़ किया है, उसे पैरों तले रौंदा है। मैं अपने-देशभाइयोंसे कहूँगा कि जबतक आपमें आत्म-सम्मान-की भावना है, जबतक आप उन परम्पराओंके उत्तराधिकारी और रक्षक हैं जो आपको पुस्त-दर-पुश्तसे विरासतमें मिली हैं, तबतक आपका भारत सरकार-जैसी एक अन्यायी सरकारके साथ असहयोग न करना असंवैधानिक है, और सहयोग करना असंवैधानिक। मैं अंग्रेजोंका विरोधी नहीं हूँ, ब्रिटेनका विरोधी नहीं हूँ, और न किसी सरकारका विरोधी हूँ। मैं विरोधी हूँ असत्यका, विरोधी हूँ पाखण्डका, विरोधी हूँ अन्यायका। जबतक सरकार अन्याय करनेपर तुली हुई है, तबतक वह मुझे अपना शत्रु माने——शत्रु माने। मैं आपसे सच कहता हूँ, ईश्वरकी साक्षी देकर कहता हूँ कि जब अमृतसर कांग्रेसमें मैंने घुटने टेककर आपसे, यानी आपमेंसे जो लोग वहाँ मौजूद थे उनसे, सरकारके साथ सहयोग करनेकी प्रार्थना की थी उस समय मैंने यही आशा की थी——मुझे पूरी तरह यह आशा थी——कि ब्रिटेनके मन्त्रिगण जो आमतौरपर बुद्धिमान ही हैं, मुसलमानोंकी भावनाको तुष्ट करेंगे और पंजाबमें जो बर्बरता बरती गई है उसके सम्बन्धमें न्याय करेंगे। मैं समझता था कि शाही-घोषणा के रूपमें ब्रिटेनने हमारी ओर मैत्रीका हाथ बढ़ाया है, और इसीलिए मैंने आपसे कहा था कि इसके जवाबमें आप भी उसे सद्भावना देकर अपनी उदारताका परिचय दें। इसी कारण मैंने आपसे सरकारके साथ सहयोग करनेका अनुरोध किया था। लेकिन आज वह विश्वास जाता रहा, ब्रिटिश मन्त्रियोंके आचरणने उसे जड़-मूलसे उखाड़ फेंका है। इसलिए आज मैं यहाँ आपसे यह अनुरोध करने आया हूँ कि आप विधान परिषदोंमें रोध-अवरोधकी व्यर्थकी नीतिसे काम न लें, बल्कि वास्तविक और ठोस असहयोग करें जो दुनियाकी सबसे शक्तिशाली सरकारको भी बिलकुल अशक्त और निस्तेज बना देता है। आज मेरा यही उद्देश्य है। जबतक हम अनिच्छुक ब्रिटिश सरकारको, उसकी कलमको हमें हमारा प्राप्य न्याय और आत्म-सम्मान देनेपर मजबूर नहीं कर देते तबतक उसके साथ हम कोई सहयोग नहीं कर सकते। हमारे शास्त्रोंका कहना है, उनकी सीख है कि अन्याय और न्याय, किसी अन्यायी व्यक्ति और न्यायप्रिय व्यक्ति तथा सत्य और असत्यके बीच कोई सहयोग हो ही नहीं सकता, और मैं यह बात भारतके बड़ेसे- बड़े धर्माचार्योंके प्रति सम्पूर्ण आदर-भाव रखते हुए और बिना किसी खण्डन या प्रतिवादकी आशंकाके कह रहा हूँ। सहयोग करना तभीतक आपका कर्त्तव्य है जबतक सरकार आपके सम्मानकी रक्षा करती है। लेकिन जब वह आपके सम्मानकी रक्षा करनेके बजाय आपको सम्मान से वंचित करने लग जाये तो उसके साथ असहयोग करना भी आपका उतना ही बड़ा कर्त्तव्य हो जाता है। यही असहयोगका सिद्धान्त है।
असहयोग और विशेष कांग्रेस
मुझसे कहा गया है कि कांग्रेसकी आवाज समस्त राष्ट्रकी आवाज है, इसलिए मुझे उसकी विशेष बैठक होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। मैं जानता हूँ कि