है। सारी जनता इन शक्तियोंको कब प्राप्त करेगी——यदि हम यह सोचने बैठ जायें तो हमारा सर चकराने लगेगा। लेकिन यदि हम सब अपने हृदयसे ही यह प्रश्न करें कि हमें वैसी शक्ति कब प्राप्त होगी तो सब बातें अपने आप आसान हो जायेंगी। जो हम करते हैं वह दूसरे भी कर सकते हैं——ऐसा मानें; न मानें तो हम अहंकारी ठहरेंगे।
पाठक वीर बने, सच्चा बने, आत्म-बलिदानके लिए तत्पर रहे, निडर बने, ईश्वरके प्रति आस्था रखे, सरकारी इनामोंके लिए न ललचाये, सरकार द्वारा स्थापित विधान परिषदोंसे लुब्ध न हो——ये सब बातें मुश्किल नहीं हैं। जो इतना करेगा स्वतन्त्र हो जायेगा और उसकी छूत दूसरोंको लगे बिना नहीं रहेगी। और यदि यह छूत जनताको लग जाये तो वह स्वतन्त्र हो जायेगी। व्यक्ति तथा समाज दोनोंपर एक ही नियम लागू होता है। समस्त राष्ट्र रोगसे पीड़ित हो और समस्त जनता उसके उपचारसे परिचित न हो तो भी जो व्यक्ति उसके उपचारसे परिचित हो उसका कर्त्तव्य हो जाता है कि वह उपचार करे। उसी तरह गुलामीसे मुक्त होनेका जो उपचार है——वह किया जाना चाहिए, फिर चाहे उसे जाननेवाला एक ही व्यक्ति क्यों न हो।
नवजीवन, २९-८-१९२०
१२१. तीन मोह
हिन्दुस्तानमें मैं जहाँ कहीं भी गया वहीं मैंने देखा लोगोंमें सरकारी स्कूलों, वकालत और विधान परिषदोंके प्रति भारी मोह है। स्कूलोंके बिना लड़के अशिक्षित रह जायेंगे, वकालतके अभावमें वकील भूखे मरेंगे और [लोगोंको] न्यायकी प्राप्ति नहीं होगी तथा विधान परिषदोंके न होनेपर जनताका कारोबार नहीं चल सकेगा——जबतक लोगोंके हृदयोंमें ऐसा भय बना रहेगा तबतक न तो खिलाफत और न पंजाब के मामलेका ही निपटारा सम्भव है।
सरकारी स्कूलोंमें जो शिक्षा दी जाती है उसे [खुद-ब-खुद] प्राप्त कर लेनेकी शक्ति हममें आनी चाहिए और डिग्रीका मोह जाना चाहिए। इसी तरह घर बैठे ही न्याय प्राप्त करनेका तरीका हमें सीखना चाहिए। सरकारी अदालतोंमें हमेशा न्याय ही मिलता हो सो बात नहीं। न्यायाधीश और अन्य व्यक्तियोंको घूस लेते भी देखा गया है तथा भूल अथवा अज्ञानसे अन्याय करते हुए भी पाया गया है। प्रिवी कौंसिल- तक में अन्याय होनेके उदाहरण मिले हैं। बहुत हुआ तो यही होगा कि अदालतोंका त्याग करनेसे कदाचित् हम परस्पर अपने झगड़ोंको न निपटा सकें। वकील भी धैर्यपूर्वक यह मानकर कि वकालतके सिवा भी जीविका प्राप्त की जा सकती है, अन्य उपायोंसे अपनी जीविका अर्जित करनेका प्रयत्न करें। सबसे अधिक मोह तो विधान