लेकिन इस लेखका उद्देश्य इस प्रकारके उज्ज्वल पक्षको प्रस्तुत करनेके बजाय अतीतकी भूलोंको सामने रखना है। मैंने जो-कुछ देखा है उससे मैं इसी निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि यद्यपि इन तीन व्रतोंके[१]समारम्भ और स्वदेशी भण्डारोंके उद्घाटनके परिणामस्वरूप स्वदेशीकी भावनाको बड़ा उत्तेजन मिला है, लेकिन यदि उसका व्या- वहारिक परिणाम इतना ही होता है कि उससे देशी मिलोंके कपड़ेकी बिक्री बढ़ती है तब तो इन तीनोंमें से कोई भी व्रत लेने या स्वदेशी भण्डार खोलनेकी हिमायत करना अब सम्भव नहीं रहा। इस प्रचारका परिणाम यह हुआ है कि सूत और कपड़ेका उत्पादन बढ़नेके बजाय कीमतें ही बढ़ती गई हैं। स्पष्ट है कि जबतक सूत और कपड़ेके उत्पादनमें वृद्धि नहीं होती तबतक स्वदेशीका उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इसलिए जो लाभ हुआ है वह आर्थिक नहीं, नैतिक ही है। लोग यह समझने लगे हैं कि अगर देशके असली हितोंको आगे बढ़ाना है तो सिर्फ स्वदेशी वस्त्र पहनना ही वांछनीय है।
लेकिन यह स्पष्ट है कि हमें स्वदेशी वस्त्रोंकी बढ़ती हुई माँगको पूरा करनेके लिए व्यावहारिक कदम उठाने हैं। बेशक, इसका एक तरीका है मिलोंकी संख्यामें वृद्धि करना। लेकिन यह भी साफ है कि पूँजीपतियोंको जनताके प्रोत्साहनकी जरूरत नहीं है। वे जानते हैं कि हमारी मिलें जितना कपड़ा तैयार करती हैं, भारतको उससे बहुत अधिक कपड़ेकी जरूरत है। लेकिन मिलें झाड़-पातकी तरह बहुत आसानीसे नहीं उग आतीं। मजदूर प्राप्त करनेमें होनेवाली कठिनाईकी बात तो जाने दीजिये, इसमें बाहरसे मशीनें मँगवानेकी बात भी है। और आखिरकार भारत आर्थिक दृष्टिसे और वास्तविक दृष्टिसे तबतक तो स्वतन्त्र नहीं हो सकता जबतक कि अपनी जरूरतका कपड़ा तैयार करनेके लिए उसे बाहरसे मशीनें मँगवाते रहना पड़े।
इसलिए स्वदेशीका विशुद्धतम और लोकप्रिय रूप है हाथ-कताई और बुनाईको बढ़ावा देना और इस तरह तैयार किये गये सूत और कपड़ेके समुचित वितरणका प्रबन्ध करना। थोड़ी-सी बुद्धिमानी और मेहनतसे यह काम किया जा सकता है। जिस तरह लोग बिना किसी कठिनाईके अपने घरमें ही अपना भोजन तैयार कर लेते हैं, उसी तरह वे अपने कपड़े भी अपने घरमें ही तैयार कर सकते हैं। और जैसे हर घरका अपना अलग रसोईघर होनेके बावजूद उपाहारगृह वगैरह मजेमें चल रहे हैं, वैसे ही हमारी अतिरिक्त आवश्यकताओंकी पूर्ति मिलें करती रहेंगी। लेकिन जैसे दैवयोगसे सारे उपाहारगृहोंके बन्द हो जानेपर अपने घरेलू रसोईघरकी बदौलत हमें भूखों नहीं रहना पड़ेगा, वैसे ही पश्चिमी दुनियाकी नाकेबन्दीके परिणामस्वरूप अगर हमारी एक-एक मिल बन्द हो जाये, तो भी हम अपनी घरेलू कताई-बुनाईकी बदौलत कभी नंगे नहीं रहेंगे। अभी बहुत समय नहीं बीता जब हम अपनी आर्थिक स्वतन्त्रताके इस रहस्यको समझते थे, और हम अब भी अगर थोड़ीसी मेहनत करें, थोड़ी संगठन-क्षमताका परिचय दें और जरा-सा त्याग करें तो यह स्वतन्त्रता पुनः प्राप्त कर सकते हैं।
- ↑ देखिए खण्ड १५ ।