संकुचित करने में कोई समर्थ है, तो आप वीर बनकर और निडर होकर सरकारी स्कूल-कालेजोंका त्याग कर दें। जितने बालक-बालिकाओं और युवकोंको आप पढ़ा सकते हों उतनोंको पढ़ाइये और दूसरोंका लोभ छोड़ दीजिये।
अब स्वदेशीके बारेमें। मेरा विश्वास है कि स्वदेशीमें स्वराज्य निहित है। मेरे बारेमें एक बार चिन्तामणिने लिखा था कि गांधीको स्वराज्य और खिलाफतसे स्वदेशी ज्यादा प्रिय है। मुझे सचमुच ही स्वदेशी प्रिय है। जीत होनेके बाद खिलाफतका प्रश्न थोड़े ही रहनेवाला है? स्वदेशी तो शाश्वत है। स्वदेशी शरीरके साथ लगा हुआ धर्म है। वह अटल है। दृढ़तापूर्वक हम एक दिन भी स्वदेशीका पालन करें, तो आज ही स्वराज्य हमारे हाथमें होगा। बुद्धिमान लोगोंने मुझसे कहा है कि हम लंकाशायरका कारबार ठप कर दें, परन्तु यह काम कठिन है। हममें न तो बहिकारकी शक्ति है और न भावना। शक्ति होती तो जैसे मैं शस्त्रोंसे नहीं डरता, वैसे ही बहिष्कारसे भी न डरता। बहिष्कारके बिना भारतका शोषण होता हो, तो मैं उसे भी अच्छा समझता हूँ। मैं स्वयं एक बार जिसका त्याग कर देता हूँ, उसे दुबारा ग्रहण ही नहीं करता। शराबी और पापीके साथ क्षण-भरके लिए भी सहयोग नहीं हो सकता। सहयोग तभी सम्भव है, जब वह शराब छोड़ दे। यह अटल सिद्धान्त हिन्दुस्तान ग्रहण कर ले, तो आज ही स्वतन्त्रता मिल जाये, खिला- फतके मामलेमें आज ही न्याय मिल जाये। मुसलमानोंको मैं अभीतक खादी नहीं पहना सका। उन्हें फकीर नहीं बना सका। हिन्दुओंको भी समझा नहीं सका हूँ। इसीलिए हम अबतक खिलाफतके मामलेमें इन्साफ नहीं पा सके। पंजाबके मामलेमें इतना अधिक रुदन होनेपर भी, अबतक कुछ नहीं हो रहा है। हमारे मनमें यह बात बैठ जानी चाहिए कि विदेशी कपड़ा हमारे लिए हराम है। स्त्रियोंसे दीन वाणीमें मेरी प्रार्थना है कि स्वदेशी तो आपके हाथकी बात है। कातना आपका धर्म ही है। पुरुषोंके सामने आपको अपना उदाहरण रखना चाहिए। खादीमें बोझा होनेकी शिकायत माताएँ तो कर ही नहीं सकतीं। नौ महीने सन्तानका भार आनन्दसे उठानेवाली माता यह कैसे कह सकती है कि एक सेर बोझा मेरे लिए असह्य है? वह बाँझ रहनेको तैयार हो तभी ऐसा कह सकेगी, परन्तु जबतक वह बाँझ नहीं रहना चाहती बल्कि वीरों और वीरांगनाओंको जन्म देना चाहती है, तबतक मैं माता से ये शब्द नहीं सुनना चाहता। यह मेरी समझके बाहरकी बात है कि आपका देश यदि नग्न दशामें है, तो आप जापान, चीन, इंग्लैंड या फ्रांसके मिलोंमें बनी हुई साड़ियां कैसे पहन सकती हैं।
छेड़े हुए कामके लिए रुपया चाहिए। यह देश इतना श्रद्धालु है कि रुपया तो पाखण्डी भी जुटा सकते हैं। अपने मन्दिरों, मस्जिदों और धर्मशालाओंके लिए आप रुपया इकट्ठा कर सकते हैं, तो अपने अधिक शुद्ध मन्दिरों——शिक्षा-मन्दिरों——के लिए क्यों नहीं कर सकते? हममें तपश्चर्या चाहिए, त्याग चाहिए। हिन्दू त्यागका अर्थ अच्छी तरह समझ जायेंगे। शास्त्रोंमें कहा है कि अपरिग्रह-पालन करनेवाले के पास रत्न तो नाचते हैं। मेरा अपना भी ऐसा ही अनुभव है। आफ्रिका-जैसे गरीब देशमें रुपयेके अभावमें लड़ाई कभी बन्द नहीं रही। उलटे मुझे गोखलेजीको लिखना पड़ा था कि