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भाषण : मद्रासकी सभामें

जिसके वे प्रतिनिधि है, वह सरकार स्वीकार-भर कर लेती कि ऊपर बताई हुई कानूनी निर्योग्यताएँ ब्रिटिश संविधानके मूल सिद्धान्तोंके प्रतिकूल हैं, तो आज शामको मेरे आपके सामने खड़े होनेकी जरूरत ही न होती। मैं आदरपूर्वक निवेदन करता हूँ कि एजेंट-जनरलने जो मत व्यक्त किया है, उसको अपने ही अपराधके बारेमें किसी अभियुक्तके कथनसे अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता।

गिरमिटिया भारतीय आम तौरपर वापसी टिकटका फायदा नहीं उठाते, इस वस्तुस्थितिका हम प्रतिवाद नहीं करते। परन्तु यह हमारी शिकायतोंका सर्वोत्तम उत्तर है, इसका तो खंडन हमें करना ही होगा। इस वस्तुस्थतिसे निर्योग्यताओंका अस्तित्व झूठा कैसे साबित हो सकता है? इससे तो यह सिद्ध हो सकता है कि जो भारतीय वापसी टिकटका फायदा नहीं उठाते, वे या तो निर्योग्यताओंकी परवाह नहीं करते या उनके बावजूद उपनिवेशमें बने रहते हैं। यदि पहली बात हो तो ज्यादा समझदार लोगोंका कर्तव्य है कि वे भारतीयोंको उनकी स्थिति महसूस करायें और उन्हें समझायें कि उन निर्योग्यताओंके सामने सिर झुकाने का अर्थ अपना अधःपतन होता है। अगर दूसरी बात है तो यह भारतीय राष्ट्र के धैर्य और क्षमावृत्तिका, जिसे श्री चेम्बरलेनने ट्रान्सवाल-पंच-फैसला सम्बन्धी अपने खरीतेमें स्वीकार किया था, एक और उदाहरण है। वे निर्योग्यताओंको सहन करते हैं, यह कोई कारण नहीं कि निर्योग्यताओंको दूर न किया जाये, या उन्हें जितना सम्भव है, उतने अच्छे से-अच्छे व्यवहारकी द्योतक बताया जाये।

फिर, ये लोग हैं कौन, जो भारत लौटने के बदले उस उपनिवेशमें बस जाते हैं? वे सबसे गरीब वर्गोंके और सबसे ज्यादा घनी आबादीवाले जिलोंके लोग हैं, जो भारतमें शायद आधी भुखमरीकी हालतमें रहते थे। वे नेटाल गये हैं, अगर सम्भव हो तो वहाँ बसने के लिए; और अगर उनके परिवार थे तो उन्हें भी साथ ले गये हैं। फिर क्या ताज्जुब कि ये अपनी गिरमिटकी अवधि पूरी करने के बाद, जैसाकि श्री सांडर्सने कहा है, उसी आधी मुखमरीकी हालतमें लौटने के बजाय एक ऐसे देशमें बस जाते हैं, जहाँकी आबहवा उत्कृष्ट है और जहाँ वे अच्छी-मली जीविका उपार्जित कर सकते हैं? भूखों मरनेवाला आदमी रोटीके एक टुकड़े के लिए कितना भी दुर्व्यवहार सह लेता है।

क्या ट्रान्सवालमें गोरे विदेशियोंकी शिकायतोंकी सूची काफी लम्बी नहीं है? फिर भी, अपने साथ होनेवाले दुर्व्यवहारके बावजूद, क्या वे हजारोंकी संख्या में इसलिए ट्रान्सवालमें एकत्र नहीं होते कि वहाँ वे अपने पुराने देशकी अपेक्षा ज्यादा सरलतासे जीविका उपाजित कर सकते हैं?

यह भी स्मरण रखना चाहिए कि श्री पीसने अपना वक्तव्य देते समय स्वतन्त्र भारतीय व्यापारियोंका ध्यान नहीं रखा है। ये व्यापारी स्वतन्त्र रूपसे उस उपनिवेशमें जाते हैं और अपमान तथा निर्योग्यताओंको सबसे ज्यादा महसूस करते है। अगर गोरे विदेशियोंसे यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्व्यवहार नहीं सह सकते तो ट्रान्सवाल मत आओ, तो फिर उद्योगी भारतीयोंसे ऐसा कहना तो और भी निरर्थक