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भाषण : मद्रासकी सभामें


केपकी संसदने एक विधेयक पास किया है। उसके द्वारा ईस्ट लंदन म्युनिसिपैलिटीको अधिकार दिया गया है कि वह भारतीयोंको पैदल-पटरियोंपर चलने से रोकने और उन्हें पृथक् बस्तियोंमें बसने को बाध्य करने के लिए उपनियम बना ले। उसने ईस्ट ग्रिक्वालैंडके अधिकारियोंको भारतीयोंको व्यापारके परवाने न देनेका आदेश भेजा है। केप-सरकार ब्रिटिश-सरकारके साथ इस उद्देश्यसे पत्र-व्यवहार कर रही है कि उसे एशियाइयोंकी बाढ़को रोकने का कानून बनाने की अनुमति देनेके लिए राजी किया जा सके।

चार्टर्ड टेरिटरीजके लोग एशियाई व्यापारियोंके लिए अपने देशका द्वार बन्द करने के प्रयत्नोंमें लगे हैं।

सम्राज्ञी-सरकारके शासनाधीन जूलूलैंडकी एशोवे तथा नोंदवेनी नामक बस्तियोंमें हम न तो जमीन-जायदाद खरीद सकते हैं और न अन्यथा प्राप्त कर सकते हैं। इस समय यह प्रश्न श्री चेम्बरलेनके सामने उनके विचाराधीन है। ट्रान्सवालके समान वहाँ भी भारतीयोंके लिए देशी सोना खरीदना अपराध है।

इस प्रकार, हम चारों ओर प्रतिबंधोंसे घिरे हुए हैं। और, अगर हमारे लिए यहाँ और इंग्लैडमें कुछ नहीं किया गया तो, सिर्फ समयका सवाल है कि दक्षिण आफ्रिकासे शिष्ट भारतीयोंका नाम-निशान मिट जायेगा।

और, यह प्रश्न सिर्फ स्थानिक नहीं है। लन्दन 'टाइम्स' के कथनानुसार, "यह प्रश्न भारतके बाहर ब्रिटिश भारतीयोंकी मान-मर्यादाका" है। 'थंडरर' कहता है,

"अगर वे दक्षिण आफ्रिकामें वह स्थिति (अर्थात, समान मान-मर्यादाकी) प्राप्त करने में असफल रहे, तो दूसरे स्थानोंमें उसे प्राप्त करना उनके लिए कठिन होगा।" आपने अखबारोंमें पढ़ा ही होगा कि आस्ट्रेलियाई उपनिवेशोंने भारतीयोंको दुनियाके उस भागमें बसने से रोकने का कानून स्वीकार किया है। ब्रिटिश सरकार इस प्रश्नको कैसे निबटाती है, यह जानना दिलचस्प होगा।

सार द्वेषभावका सच्चा कारण दक्षिण आफ्रिकाके प्रमुख पत्र केप 'टाइम्स' के उस समयके शब्दोंमें व्यक्त किया जाये, जबकि उसके सम्पादक दक्षिण आफ्रिकी पत्रकारोंके सरताज श्री सेंट लेजर थे, तो वह है :

जिस चीजसे आजतक भारी शत्रुता पैदा होती आ रही है, वह है इन व्यापारियोंकी स्थितिके और इनकी स्थितिका खयाल करके ही इनके व्यापारी प्रतिस्पधियोंने, अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए, सरकारके माध्यमसे, इन्हें वह दण्ड देनेका प्रयत्न किया है, जो प्रत्यक्ष रूपमें बहुत-कुछ अन्याय-जैसा दीखता है। वही पत्र आगे कहता है :

भारतीयों के प्रति अन्याय इतना स्पष्ट है कि जब केवल इन लोगोंकी व्यापारिक सफलताके कारण हमारे देशवासी इनके साथ देशी (अर्थात्, दक्षिण आफ्रिकाके) लोगों-जैसा व्यवहार कराना चाहते हैं तो उनपर शर्म-सी आती है। भारतीयोंको उस मानहानिकर स्तरसे उन्नत कर देनेके लिए तो स्वयं यह कारण ही काफी है कि वे प्रबल जातिके विरुद्ध इतने सफल हुए हैं।