है। कमसे-कम अखबारों में जो समाचार और तार प्रकाशित होते हैं उनसे तो दक्षिण आफ्रिकाकी स्थिति ऐसी ही दिखाई देती है।
निश्चय ही, आपका तो यह दृढ़ विचार होगा कि नेटालको भारतीयोंके आनेपर रोक लगाने का कोई अधिकार नहीं है?
जी। निश्चय, मेरा यही खयाल है।
किस आधारपर?
इस आधारपर कि वे ब्रिटिश प्रजाजन हैं। और यह भी कि उपनिवेश एक वर्गके भारतीयोंको तो ला रहा है, किन्तु दूसरे वर्गको नहीं चाहता।[१]
- हां
यह बड़ी असंगत बात है। यह साझेदारी तो भेड़ और भेड़ियेकी दोस्ती-जैसी लगती है। भारतीयोंसे जितना लाभ मिल सकता है वह तो वे उठा लेना चाहते हैं, परन्तु यह नहीं चाहते कि भारतीयोंको तिल-मर भी लाभ हो।
- इस प्रश्नपर भारत-सरकारका रुख क्या होगा?
यह मैं नहीं बता सकता। अभीतक मुझे पता नहीं है कि भारत सरकारकी भावना क्या है। परन्तु हाँ, भारतीयोंके प्रति उदासीनताकी भावना तो हो नहीं सकती। सहानुभूति ही होगी, किन्तु वह इसपर क्या कदम उठायेगी, यह तो कई परिस्थितियोंपर निर्भर करता है। इसलिए वह क्या करेगी यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है।
क्या इसका परिणाम यह हो सकता है कि अगर यहाँ स्वतन्त्र भारतीयोंके प्रवेशपर रोक लगा दी गई तो भारत सरकार शर्तबन्द भारतीयोंको भेजना बन्द कर दे?
हाँ, मुझे तो ऐसी ही आशा है,[२] परन्तु भारत-सरकार ऐसा करेगी या नहीं, यह दूसरी बात है।
मुझे सबसे अधिक खयाल तो इसी बातका आ रहा है कि प्रदर्शनकारियोंने प्रश्नके साम्राज्य-सम्बन्धी पहलू को एकदम सुला दिया। यह तो मानी हुई बात है कि भारत ब्रिटिश ताजका सबसे अधिक मूल्यवान रत्न है। संयुक्त राज्यका अधिकांश व्यापार भारतके साथ ही होता है। इसके अलावा संसारके प्राय: सभी हिस्सोंमें ग्रेट ब्रिटेनकी तरफसे लड़नेवाले शूरसे-शूर सिपाही भारत ही देता है।
प्रश्नकर्त्ताने बताया कि वे "ईजिप्ट (मित्र) से आगे तो कभी नहीं गये", और श्री गांधीने भी मौनभावसे इस भूल-सुधारको स्वीकार कर लिया।
- ↑ यह उल्लेख स्वतन्त्र भारतीयों—व्यपारीयों और कारीगरों—का है, गिरमिटिया मजदूरों का नहीं जिन्हें आने कि इजाजत थी।
- ↑ वास्तव में दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों ने ब्रिटेन और भारत दोनों सरकारोंको प्रर्थनापत्र भेजें थे कि अगर गिरमिटकी अवाध पूरी कर लेनेवाले मजदूरों पर लगाये गयें प्रतिबन्ध हटाये न जाये तो ओर अधिक मजदूरों को लाने कि अनुमति न दी जायें। देखिए, खण्ड १ पृ॰ २५१ और २५४।