पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 2.pdf/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

२५. पत्र : सर विलियम डब्ल्यू॰ हंटरको[१]

'डर्बन
२९ जनवरी, १८९७

श्रीमन्,

मैं १८ दिसम्बरको नेटाल पहुँचा, परन्तु १३ जनवरीके पहले डर्बनमें उतर नहीं सका। यह देरी जिन परिस्थितियोंमें हुई वे बहुत दर्द-भरी है। कल भारतीय समाजने आपको एक बहुत लम्बा तार[२] भेजा है। उसमें गत तीस दिनोंकी घटनाओं का विवरण दिया जा चुका है। मैं नीचे उन परिस्थितियोंके बारे में बताने की इजाजत लेता हूँ, जिनका अन्त डर्बनके ५,००० लोगोंके प्रदर्शनमें हुआ। प्रदर्शनका उद्देश्य 'कूरलैंड' और 'नादरी' जहाजोंसे यात्रियोंके उतरने का विरोध करना था। इन जहाजोंमें से पहला डर्बनकी दादा अब्दुल्ला ऐंड कम्पनीका है और दूसरा (बम्बईकी) पशियन स्टीम नैविगेशन कम्पनीका।

गत अगस्तके आरम्भके आसपास टोंगाट शुगर कम्पनीने प्रवासी न्यास निकाय को अर्जी दी थी कि गिरमिट-प्रथाके अन्तर्गत ग्यारह भारतीय कारीगरोंको ला दिया जाये।[३] इससे आम भारतीयोंके खिलाफ यूरोपीय कारीगरोंके संगठित विरोधका सूत्रपात हो गया। डर्बन, मैरित्सबर्ग और अन्य शहरोंमें यूरोपीय कारीगरोंकी बड़ी-बड़ी सभाएँ हुई और उनमें शुगर कम्पनी द्वारा भारतीय कारीगरोंके बुलाये जाने का विरोध किया गया। कम्पनीने कारीगरोंकी आवाजके सामने घुटने टेक दिये और अपनी अर्जी वापस ले ली।[४] परन्तु आन्दोलन जारी रहा। नेताओंने कुछ बातें सच मान ली और आन्दोलनको, लगभग बिना भेदके, सारेके-सारे भारतीयोंके खिलाफ बढ़ने-फैलने दिया। अखबारोंमें भारतीयोंके विरुद्ध आवेशपूर्ण पत्र छपते रहे। इनमें से अधिकतर फरजी नामोंसे लिखे जाते थे। जब यह सब जारी ही था तब अखबारोंमें इस आशयके वक्तव्य प्रकाशित हुए कि भारतीयोंने उपनिवेशको स्वतन्त्र भारतीयोंसे पूर देने के लिए एक आयोजन किया है। इसीके आसपास मेरी पुस्तिकाके बारेमें रायटरका

  1. साधन-सूत्रसे यह पता चलता है कि यह किसे भेजा गया था? परन्तु सर विलियम विल्सन इंटरने अपने २२ फरवरी, १८९७ के पत्र (एस॰ एन॰ २०७४) में इसकी प्राप्ति-स्वीकार की है। इससे स्पष्ट है कि यह इसको मिला था। सम्भव है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समिति और सर मंचरजी भावनगरीको भी इसी प्रकार के पत्र भेजे गए हों।
  2. देखिए पिछला शीर्षक।
  3. वहीं दी गई तारीख और मांगे गए गिरमिटियों की संख्या भिन्न है; देखिए पृ॰ १५१।
  4. देखिए "प्रर्थनापत्र : उपनिवेश मंत्रीको", पृ॰ १५० भी।