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प्रर्थनापत्र : उपनिवेश-मंत्रीको

है और आपके प्राथियोंका उक्त भय सत्य सिद्ध हो गया है। अब यह दूसरी बात है कि सरकार कोई ऐसा बिल पेश करेगी या नहीं जिसका लक्ष्य गिरमिटिया-कालकी पूर्ति भारतमें करवाने का हो। परन्तु प्रार्थियोंका नम्र निवेदन है कि यह एक सच्चाई है कि सम्राज्ञीकी सरकारके, यूरोपीय उपनिवेशियोंकी इस इच्छाके सामने झुक जानेका कि गिरमिटिया भारतीयोंको उनके ठेकेकी समाप्तिपर अनिवार्य रूपसे भारत देनेका सिद्धान्त मान लिया जाये, परिणाम यह हुआ है कि उन्हें और भी नई माँगें पेश करने के लिए बढ़ावा मिल गया है। अब भारतीय समाजसे आशा की जा रही है कि वह शेर और बकरी-जैसी साझेदारी कर ले जिसमें उसे देना तो सब-कुछ पड़े परन्तु पाने के नामपर कुछ न हो। आपके प्रार्थियोंको हार्दिक आशा है कि वर्त्तमान स्थितिका अन्त चाहे कुछ भी हो, सम्राज्ञीकी सरकार इतनी प्रत्यक्ष अन्यायपूर्ण व्यवस्थासे कभी सहमत नहीं होगी, और सरकारी सहायतासे भारतीयोंका नेटाल भेजा जाना बन्द कर देगी।

संघके इस प्रार्थनापत्रसे उसके पुरस्कर्ताओंका शोचनीय अज्ञान और भारी रागद्वेष भी प्रकट होता है। प्राथियोंको यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं कि जिन ब्रिटिश उपनिवेशोंका इस प्रार्थनापत्रमें जिक्र किया गया है उन्हें अबतक वैसा वर्ग-भेदमूलक कानून पास नहीं करने दिया गया जैसेका इसमें संकेत है। 'नेटाल मर्क्युरी' ने भी अपने २८ नवम्बरके अग्रलेखमें संघको स्मरण करवाया था कि "सच बात यह है कि उन उपनिवेशोंमें जिन कानूनोंपर अमल हो रहा है वे प्रायः एकमात्र चीनियोंके विरुद्ध बनाये गये हैं।" और यदि कभी भविष्यमें ऐसे कानून बनाये भी जाने हों तो इस उपनिवेश और अन्य उपनिवेशोंमें कोई समानता नहीं है। नेटालका काम भारतीय मजदूरोंके बिना तो चल नहीं सकता; अन्य भारतीयोंके लिए वह अपने द्वार भले ही बन्द कर दे। परन्तु यह किसी भी प्रकार संगत नहीं होगा। इसके विपरीत, यह बात आस्ट्रेलियन उपनिवेशोंके पक्षमें जायेगी कि वे, यदि हो सके तो, अपने यहाँ बिना किसी भेदके सभी भारतीयोंका प्रवेश निषिद्ध कर दें।

गोरी और काली जातियोंमें अनुपात अवश्य बहुत विषम है। परन्तु इसके लिए भारतीय किसी भी प्रकार जिम्मेवार नहीं ठहराये जा सकते, उनकी गिनती काली जातियोंमें ही क्यों न कर ली जाये। इस विषमताका कारण यह है कि दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंकी संख्या तो ४ लाख है, और उनके मुकाबले यूरोपीयोंकी केवल ५० हजार। भारतीयोंकी संख्या लगभग ५१ हजार है। वह यदि बढ़कर १ लाख हो जाये तो भी उसका इस अनुपातपर बहुत असर नहीं पड़ सकता। प्रार्थनापत्रमें लिखा गया है कि "एशियाई जातियोंको यहाँ आते रहने देनेसे इस उपनिवेशके वतनियोंकी भारी हानि हो जायेगी", क्योंकि एशियाई मजदूर सस्ते पड़ते हैं। अब, वतनी तो अधिक से अधिक गिरमिटिया भारतीयोंकी जगह ले सकते है परन्तु संघ गिरमिटिया भारतीयोंको तो रोकना चाहता ही नहीं। बल्कि सचाई यह है कि उच्चतम अधिकारियोंने बतलाया है कि वतनी लोग वह काम कर ही नहीं सकते—और करेंगे।