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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

था कि किसी भी क्षण दोनों समुदायोंमें टक्कर हो सकती है। ८ जनवरी, १८९७ को जहाजोंके मालिकों और एजेंटोंने सरकारकी सेवामें एक प्रार्थनापत्र भेजकर उसका ध्यान इस ओर दिलाया कि भारतीय यात्रियोंके उतरने के विरुद्ध डर्बनकी जनताके भाव कैसे भड़केहुए हैं। उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि "सरकार यात्रियोंके जान-मालकी कानूनके खिलाफ कार्रवाई करनेवालों से—भले वे कोई भी क्यों न हों—रक्षा करे;" और सरकारको विश्वास दिलाया कि "यात्रियोंको चुपचाप, बिना किसीको मालूम हुए, उतारने के लिए जो भी उपाय करने आवश्यक होंगे उन्हें करने में वे सरकारसे सहयोग करेंगे, ताकि सरकारको ऐसा कोई काम न करना पड़े जिससे जनताकी वर्तमान उत्तेजना और भी बढ़ जाये" (परिशिष्ट थ)। ९ जनवरीको एक पत्र भेजकर सरकारका ध्यान पुनः जनतामें घुमाये गये उपर्युक्त पत्रककी ओर खींचा गया जिसमें कि यात्रियोंको उतरने से जबरदस्ती रोकने की बात कही गई थी। सरकारका ध्यान इस बातकी ओर भी खींचा गया कि रेलवे-कर्मचारी सरकारके नौकर होते हए भी इस प्रदर्शनमें भाग लेनेवाले हैं : और उससे यह आश्वासन देनेकी प्रार्थना की गई कि "सरकारी कर्मचारियोंको इस प्रदर्शनमें भाग लेनेसे रोक दिया जाये" (परिशिष्ट द)। इस पत्रका मुख्य उपसचिवने ११ जनवरीको यह उत्तर दिया :

यात्रियोंको चुपचाप और बिना किसीको मालूम हुए उतारने के आपके सुझावपर अमल करना असम्भव है। सरकारको पता चला है कि आपने बन्दरगाहके कप्तानसे अनुरोध किया है कि वह जहाजोंको, खास हिदायतोंके बिना, बन्दरगाहमें न लाये। आपकी इस कार्रवाई और आपके इन पत्रोंसे प्रकट होता है कि आप भारतीयोंके उतरने के विरुद्ध उपनिवेश-भरमें विद्यमान तीव भावनाओंसे भली-भाँति परिचित है, और उनको इस भावनाके अस्तित्व और तीव्रताको सूचना देनी ही चाहिए। (परिशिष्ट ध)

सरकारने इस पत्रके अन्तमें जो कहा है उसपर यहाँ प्रार्थी खेद व्यक्त किये बिना नहीं रह सकते। सरकारसे रक्षाका आश्वासन माँगा गया था, परन्तु उसने वहा आश्वासन देनेके बजाय जहाजोंके मालिकोंको स्पष्ट शब्दोंमें सलाह दी कि वे यात्रियोंको लौट जानेके लिए प्रेरित करें। प्रार्थियोंकी नम्र सम्मतिमें अन्य किसी बातकी अपेक्षा इस पत्रसे यह अधिक स्पष्ट हो जाता है कि सरकारने आन्दोलनको परोक्ष रूपसे बढ़ावा दिया और अपनी निर्बलता प्रकट की। यदि वह दृढ़ सम्मति प्रकट कर देती तो शायद यह आन्दोलन दब जाता और भारतीय समाजको सम्राज्ञीकी प्रजाओंके निधि प्रवेशकी नीतिका निश्चय हो जाने के अतिरिक्त, उसके न्यायपूर्ण इरादोंके विषयमें जनताके मनमें वांछनीय विश्वास पैदा हो जाता। १० जनवरीको माननीय श्री हैरी एस्कम्ब डर्बनमें ही थे। इसलिए मालिकोंके सॉलिसिटरोंकी पेढ़ी मेसर्स गुडरिक, लॉटन ऐंड कुकके श्री लॉटनने इस अवसरका लाभ उठाकर उनसे भेंट की, और उन्हें एक पत्र भेजकर उसमें उनके साथ हुई अपनी बातचीतका सारांश लिख दिया (परिशिष्ट न)। इस पत्रसे प्रकट होता है कि श्री एस्कम्बने उस वक्तव्यका प्रतिवाद किया जो कि श्री वाइलीने उनका दिया हुआ बतलाया था और जिसका जिक्र ऊपर