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प्रर्थनापत्र : उपनिवेष-मंत्रीको

सका। अब रही बात स्वतन्त्र भारतीयोंकी। ये लोग व्यापार, खेती, या घरगृहस्थीकी नौकरीमें से किसी एक काममें लगे हुए हैं। इनमें से किसी भी काममें ये प्रत्यक्ष यूरोपीय सहायताके बिना सफल नहीं हो सकते थे। जहाँतक भारतीय व्यापारियोंका सम्बन्ध है, उन्हें तो पहले-पहल सहारा यूरोपीय व्यापारियोंसे ही मिलता है। डर्बनमें शायद एक भी प्रतिष्ठित व्यापारिक पेढ़ी ऐसी नहीं दिखाई जा सकेगी जिसके एजेंट बोसियों भारतीय न हों। कुली 'किसानों' की सहायता और रक्षा यूरोपीय दो प्रकारसे करते हैं : उन्हें खेतीके लिए जमीन मूलयूरोपीय मालिकसे ही खरीदनी या किरायपर लेनी पड़ती है, और उसकी पैदावारको अधिकतर खपत भी यूरोपीय घरोंमें ही होती है। यदि कुली बागबान और फेरीवाले न होते तो डर्बनके (और उपनिवेशके अन्य भागोंके) लोग अपने रसोईघरको बहुत-सी आवश्यकताओंके लिए तरसते रह जाते। घरगृहस्थीके भारतीय नौकरोंके विषयमें केवल इतना कह देना काफी है कि वे कार्य-क्षमता, विश्वसनीयता और आज्ञापालनमें औसत दरजेके काफिरकी अपेक्षा कहीं बेहतर सिद्ध हुए हैं। शायद बारीकी से देखनेपर पता लगेगा कि जिन लोगोंने हालके आन्दोलनमें भाग लिया था, उनमें से कईके घरोंमें भारतीय नौकर है। सरकारी नौकरीमें भी बहुत-से भारतीय लगे हुए हैं। उन सबके लिए सरकार शिक्षणकी भी व्यवस्था करती है और इस प्रकार वह उनको उन्नतिमें सहायक होती है। इससे स्पष्ट है कि जो भारतीय उपनिवेशमें पहलेसे विद्यमान है उनकी सुख-समृद्धिका मूल कारण यूरोपीय ही हैं। और इसलिए यह बात युक्तिसंगत नहीं जान पड़ती कि वही लोग उनके और अधिक संख्यामें यहाँ आनेके अकस्मात् विरोधी बन जायें। इस सबके अतिरिक्त इस प्रश्नका साम्राज्यिक पहलू भी है, और यह सबसे विषम है। जबतक नेटाल ब्रिटिश साम्राज्यका भाग रहेगा (और इसका दारोमदार नेटालपर नहीं, ब्रिटनपर है) तबतक साम्राज्य-सरकार इस बातका आग्रह रखेगी कि उपनिवेशमें ऐसे कोई कानून न बनाये जायें जो कि साम्राज्यके साधारण विकास और लाभके विरोधी हों। भारत साम्राज्यका एक भाग है। और साम्राज्य-सरकार तथा भारतसरकारका संकल्प सभ्य संसारके सामने यह सिद्ध करके दिखलाने का है कि ब्रिटेन भारतीयोंके लाभके लिए ही भारतपर शासन कर रहा है। यदि भारतके घने हलकोंकी आबादी को कम करके उन्हें राहत पहुंचाने के लिए कुछ न किया जा सका तो यह सिद्ध नहीं हो सकेगा। और यह काम उन हिस्सोंके भारतीयोंको देशसे बाहर जानेके लिए बढ़ावा देकर ही किया जा सकता है। ब्रिटेनको न तो यह अधिकार ही है और न यह उसकी इच्छा है कि वह भारतको फालतू आबादीको किसी अन्य देशपर लाद दे। परन्तु उसको यह अधिकार अवश्य है कि यदि ब्रिटिश साम्राज्यके किसी भागकी आबादीका एक