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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय


भारतीय प्रवेशाथियोंके उतरने के विरुद्ध जो प्रदर्शन किया गया उसमें इतनी बात सबके लिए भली हुई कि डॉ॰ मैकेंजीकी उत्तेजक गलेबाजी और श्री स्पार्क्स तथा उनके नये चेले डैन टेलरकी भड़कीली फिकरा-कशियोंका, नेटालके एक उपनिवेश, उसके परेशान निवासियों या बहु-निन्दित "कुलियों" पर हवाके बुलबुलोंसे अधिक कोई असर नहीं हुआ। अपने मुँह आप देशभक्त बननेवाले इस दुविचारपूर्ण प्रदर्शनके संगठनकर्ताओंने यत्न तो किया था रोमन विदूषकका नाटक खेलनेका, परन्तु उनकी तलवारसे मौत उनको अपनी ही हो गई। सौभाग्यवश कोई अधिक गम्भीर बात नहीं हुई, परन्तु जिन्होंने लोगोंसे इकट्ठा होने और ऐसा अवैधानिक काम कर गुजरने की अपील करने की जिम्मेवारी अपने सिर लो थी, उनकी मूर्खता डर्बनको भीड़की अन्तिम कार्रवाइयोंसे जैसी प्रकट हुई वैसी इस तमाम हल्लेगुल्लेसें अन्य किसी समय नहीं हुई। जब इस भीड़का कुली प्रवेशाथियोंको उतरने से रोकने का प्रयत्न असफल हो गया और जब इसने देख लिया कि हमारा प्रदर्शन टॉय-टॉय-फिस्स रह गया है, तब वह चिढ़ गई, और क्रोध तथा अपमानके मारे उसका सारा ध्यान, एक भारतीय बैरिस्टर श्री गांधीपर केन्द्रित हो गया। नेटालवालोंको नजरमें उनका सबसे बड़ा अपराध यह था कि उन्होंने अपने देशवासियोंके मामलों में रुचि ली और स्वेच्छासे दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंके वकीलकी भूमिका अपना ली। यहाँतक तो प्रदर्शनसे कोई हानि नहीं हुई, और उसकी तुलना क्रिसमसके मूक स्वाँगसे की जा सकती थी; परन्तु जब श्री गांधी बिना किसी दिखावे के उतरकर, एक अंग्नेज सॉलिसिटर श्री लॉटनके साथ चुपचाप शहरमें चले जा रहे थे, तब हालातने एकदम जंगली रूप धारण कर दिया। हम न तो दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंका पक्ष लेना और न श्री गांधीको युक्तियोंका समर्थन करना चाहते हैं। परन्तु इन सज्जनकी जो शोचनीय दुर्गति की गई वह कलंकमय और निन्दनीय है। कुछ सिर-फिरे लोगोंको हु-हा करती हुई भीड़ने श्री गांधीको घेर लिया, उन्हें लातों और मुक्कोंका निशाना बनाने की कमीनी हरकत की गई, और उनपर कीचड़ और सड़ी-गली मछलियाँ फेंकी गई। एक आवारा आदमीने उन्हें घोड़ेके चाबुकसे मारा और एकने उनको पगड़ी उछाल दी। हमें मालूम हुआ है कि उस आक्रमणके कारण वे "बहुत लहू-लुहान हो गये और उनकी गरदनसे खून बहने लगा।" अन्तमें वे पुलिसके संक्षरणमें एक पारसी[१] की दूकानमें ले जाये गये। उस इमारतको रक्षा नगरको पुलिस करने लगी। अन्तमें वे भारतीय बैरिस्टर वेश बदलकर वहाँसे निकल गये और इस तरह उन्होंने अपनी रक्षा की। बेशक, उपद्रवी भीड़के लिए तो यह एक बड़ा तमाशा

  1. एक भारतीय पारसी, रुस्तमजी, 'पारसी रुस्तमजी' के नामसे प्रसिद्ध थे।