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प्रर्थनापत्र : उपनिवेश-मंत्रीको

लोग खुश होकर अपने घरोंको लौट गये। प्रदर्शनकारी जितनी फुर्तीसे एकत्र हुए थे उतनी ही जल्दी बिखर गये। और अब जिन भारतीयोंको भुला दिया गया था, वे चुपचाप तटपर उतर आये, मानों कभी कोई प्रदर्शन हुआ ही नहीं था। इस सबके बाद कौन यह सन्देह किये बिना रह सकता है कि सारा मामला पहलेसे रचा हुआ और जाना-माना था? 'कूरलैंड' के कप्तानने दावेके साथ कहा है कि समितिने मुझे विश्वास दिलाया था कि वह सरकारको तरफसे काम कर रही है। यह भी बतलाया गया है कि समिति जो-कुछ कर रही थी, उस सबको सरकार जानती और पसन्द करती थी। ये बयान यदि सच हों तो इनसे सरकार या समितिकी ईमानदारीपर गम्भीर आक्षेप होता है। यदि समितिको सरकारको स्वीकृति प्राप्त थी तो इसका मतलब है कि सरकार दोमुँहा खेल खेल रही थी। उसने जिन कार्रवाइयोंको अपने प्रकाशित उत्तरमें नापसन्द किया था उन्हींको वह भीतर-भीतर बढ़ावा दे रही। थी। अगर ये बयान सही नहीं हैं, तो दोमुँही चालका आरोप समितिके सिर मढ़ा जायेगा। हम इन बयानोंपर विश्वास करना नहीं चाहते, क्योंकि किसी भी बड़े लक्ष्यकी पूर्ति ऐसे उपायोंसे नहीं हुआ करती।—'नेटाल एडवर्टाइज़र', १४ जनवरी, १८९७।

हमने कल 'कूरलैंड' के कप्तानके नाम प्रदर्शन-समितिका जो पत्र प्रकाशित किया था, उससे इस आरोपका समर्थन नहीं होता कि समितिने झूठ-मूठ ही ऐसा प्रकट कर दिया था कि वह सरकारको तरफसे काम कर रही है। परन्तु इस पत्रको जो ध्वनि है और इसमें महान्यायवादीका जिक्र जिस प्रकार किया गया है उससे वैसा समझ लेनके लिए कप्तानको भी दोषी नहीं माना जा सकता। परन्तु उस पत्रमें यह दूसरा सन्देह हो जानेकी गुंजाइश मौजूद है कि कानून-विरोधी कार्रवाइयोंके विरुद्ध सरकारको जो चेतावनियाँ प्रकाशित हुई उनके बावजूद, अमली तौरपर सरकारने समितिके साथ गठबन्धन कर रखा था। इस पत्रके अनुसार महान्यायवादीने पहले तो यह मान लिया था कि भारतीयोंको उपनिवेशसे बाहर ही रोक देनेका कानूनी उपाय कोई नहीं है, परन्तु पीछे वे यहाँतक आगे बढ़ गये कि उन्होंने एक ऐसी संस्थाके कहने से, जिसकी कानूनी स्थिति कुछ नहीं थी और जो डराने-धमकाने के लिए कानूनविरोधी उपायोंका सहारा ले रही थी, आये हुए लोगोंको पैसा देकर वापस करने की नीति निभाने के लिए जनताके धनका संकल्प कर दिया। इस पत्रकी भाषासे समितिको हस्ती और उसके गैर-कानूनी कामका स्पष्ट परिचय मिल जाता है। जब यह चाल नहीं चली, तब प्रदर्शन किया गया और ऐन मौकेपर महान्यायवादी सामने प्रकट हो गये। रूढ़ उक्ति काममें लाई जाये तो इसपर टीका-टिप्पणी अनावश्यक है।—'नेटाल एडवर्टाइज़र', २० जनवरी, १८९७।