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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

प्रति ज्यादा कठोरता हुई; क्योंकि उन्होंने तो, सचमुच, ऐसे लोगोंकी आज्ञाका पालन-मात्र किया था, जिन्हें ज्यादा समझदारीसे काम लेना चाहिए था। इस किस्मके मामलेमें वतनियोंको घसीटना उनके सामने ऐसी दुर्बलताका प्रदर्शन करना है जिससे हमेशा बचना चाहिए। हमें विश्वास है कि वतनियोंके समान भड़क उठनेवाले लोगोंके जातीय पूर्वग्रहोंको उकसाने-जैसी खतरनाक और निन्दनीय कार्रवाईकी पुनरावृत्ति भविष्यमें फिर कभी नहीं की जायेगी।—'नेटाल मर्क्युरी', १६ जनवरी, १८९७।

इस सम्बन्धमें कुछ तथ्य सामने रख देनेसे सम्राज्ञीकी सरकारको शायद निर्णय पर पहुँचने में सुगमता हो जायेगी। भारतीयोंका यहाँ निर्बाध आगमन रोक देनेकी माँग यह समझकर की जा रही है कि, कोई संगठन हो या न हो, हालमें बहुत अधिक भारतीय इस उपनिवेशमें घुस आये हैं। परन्तु प्रार्थी निःसंकोच कह सकते हैं कि तथ्योंसे इस भयका समर्थन नहीं हो सकता। यह कहना ठीक नहीं है कि गत वर्ष, उससे पिछले वर्षकी अपेक्षा, अधिक भारतीय यहाँ आये। पहले वे जर्मन और ब्रिटिश इंडिया स्टीम नैविगेशन कम्पनीके जहाजोंसे यहाँ आया करते थे। यह कम्पनी अपने यात्रियोंको डेलागोआ-बे में दूसरे जहाजोंमें बदल दिया करती थी। इस कारण भारतीय छोटे-छोटे दलोंमें यहाँ पहुँचते थे, और उनपर किसीका अधिक ध्यान नहीं जाता था। गत वर्ष दो भारतीय व्यापारियोंने अपने जहाज खरीद लिये, और बम्बई तथा नेटालके बीच प्रायः नियमित और सीधा यातायात आरम्भ कर दिया। दक्षिण आफ्रिका आनेके इच्छुक अधिकतर भारतीय इन जहाजोंका लाभ उठाने लगे, और इस प्रकार छोटे-छोटे दलोंमें बँटकर आनेके बदले यहाँ एक-साथ पहुँचने लगे। इसलिए स्वमावतः उनकी ओर सबका ध्यान चला गया। इसके अलावा, जो भारत लौटते थे उनकी ओर किसीका भी ध्यान गया नहीं मालूम पड़ता। निम्न सूचीसे स्पष्ट हो जायेगा कि इस उपनिवेशके स्वतन्त्र भारतीयोंकी संख्या में बहुत वृद्धि नहीं हुई है। कमसे-कम वह इतनी तो हुई ही नहीं कि उसके कारण किसीको कोई डर लगने लगे। यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि यूरोपीयोंका आगमन अब तो स्वतन्त्र भारतीयोंके आगमनकी अपेक्षा बहुत अधिक है ही, पहले भी सदा ऐसा ही रहा है।

स्थानापन्न प्रवासी-संरक्षक श्री जी॰ ओ॰ रदरफोर्ड द्वारा हस्ताक्षरित एक विवरणसे ज्ञात होता है कि गत अगस्तसे जनवरीतक सात जहाजी पेढ़ियाँ १२९८ स्वतन्त्र भारतीयोंको इस उपनिवेशसे बाहर ले गई, और इसी अवधिमें यही पेढ़ियाँ १९६४ भारतीयोंको यहाँ लाईं। उनमें से अधिकतर बम्बईसे यहाँ आये।—'नेटाल मर्क्युरी' १७ मार्च, १८९७।

यह शिकायत सर्वथा निराधार है कि यरोपीय और भारतीय कारीगरोंमें कोई होड़ है। आपके प्रार्थी निजी जानकारीके आधारपर कह सकते हैं कि इस उपनिवेशमें लुहार, बढ़ई और राज आदि बहुत कम कारीगर भारतीय हैं; और जो हैं वे भी