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दक्षिण आफ्रिकावासी व्रिटिश भारतीयों की कष्ट-गाथा

पाँच हजार भारतीयोंके ही हाथमें है, जो मुख्यतः बम्बई प्रदेशके मुसलमान समाजसे आये हैं। इनमें से कुछका कारोबार अच्छा है। अनेक बड़े-बड़े भूस्वामी हैं, और दो तो अब जहाज-मालिक भी बन गये हैं। एकके पास भापसे चलनेवाली तेल-घानी भी है। ये लोग या तो सूरतके हैं, या बम्बईके आसपासके, या पोरबन्दरके। सूरतसे आये हुए अनेक व्यापारी अपने परिवारोंके साथ डर्बनमें बसे हुए हैं। इनमें से ज्यादातर लोग अपनी भाषाएँ लिखने-पढ़ने का ज्ञान रखते हैं। यह ज्ञान दूसरे लोग जितना समझते हैं उससे ज्यादा है। ऐसे पढ़े-लिखे लोगोंमें सरकारी सहायतासे आये हुए भारतीय भी शामिल हैं।

मैंने नेटालकी विधानसभा और विधानपरिषद्के सदस्योंके नाम जो 'खुली चिट्ठी'[१] लिखी थी, उसका निम्नलिखित अंश मैं यहाँ उद्धृत कर रहा हैं। इसका उद्देश्य यह दिखाना है कि इस उपनिवेशका साधारण यूरोपीय समाज भारतीयोंके साथ कैसा व्यवहार करता है :

साधारण लोग भी उनसे द्वेष करते हैं, उन्हें कोसते हैं, उनपर थकते हैं और अक्सर उन्हें पैदल-पटरियोंसे बाहर ढकेल देते हैं। अखबारोंको तो मानों उनकी निन्दा करने के लिए अच्छेसे-अच्छे अंग्रेजी कोशमें भी काफी जोरदार शब्द ढूढ़े नहीं मिलते। कुछ उदाहरण लीजिए—"सच्चा घुन जो समाजका कलेजा ही खाये जा रहा है"; "वे परोपजीवी"; "मक्कार, मुए अर्ध-बर्बर एशियाटिक", "दुबली और काली, कोई चीज निराली; सफाई न निकली छू, कहाते मुए हिन्दू"; "भरा नाकतक बुराइयोंसे, जीता खा तन्दुल कोसूंगा दिल भरकर उसको, वह हिन्दू चण्डूल"; "गंदे कुलोकी झूठी जबान और धूर्त आचार"। अखबार उन्हें सही नामोंसे पुकारने से लगभग एक स्वरसे इनकार करते हैं। उन्हें 'रामीसामी' कहा जाता है, 'मिस्टर सामी' कहा जाता है, 'मिस्टर कुली' और 'ब्लैक मैन' [काला आवमी] कहकर पुकारा जाता है। और ये संतापकारक उपाधियाँ इतनी आम बन गई हैं कि इनका प्रयोग (कमसे-कम इनमें से एक—'कुली'—का तो अवश्य ही) अदालतकी पवित्र सीमामें भी किया जाता हैर-मानों, 'कुली' कोई कानूनी और व्यक्तिवाचक नाम है, जो किसी भी भारतीयको दिया जा सकता है। लोकपरायणं व्यक्ति भी इस शब्दका स्वच्छन्दतासे उपयोग करते दिखाई पड़ते हैं। मैंने ऐसे लोगोंको भी इन दुःखदायी शब्दों—'कुली क्लर्क'—का प्रयोग करते सुना है, वस्तुस्थितिका जिन्हें ज्यादा अच्छा ज्ञान होना चाहिए।[२]... ट्रामगाड़ियां भारतीयोंके लिए नहीं है। रेलवे कर्मचारी भारतीयोंके साथ जानवर

  1. सम्पूर्ण चिट्ठीके पाठके लिए देखिए खण्ड १, पृ॰ १७५–९५।
  2. मूल पाठमें यहाँ दो वाक्य और है, जिन्हें 'हरि पुस्तिका' में छोड़ दिया गया है। देखिए खण्ड १, पृ॰ १९२–१९३।