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प्रर्थनापत्र : नेटाल विधानसभाको


फिर भी, प्रार्थी यह कहना नहीं चाहते कि उपर्युक्त वक्तव्योंको बिना जाँचे ही मंजूर कर लिया जाये। परन्तु प्राथियोंका निवेदन यह है कि इन वक्तव्योंसे मामलेकी जाँचकी जरूरत सिद्ध होती है।

प्राथियोंको भय है कि ये विधेयक लोगोंके द्वेषभावको तुष्ट करने के लिए पेश किये जा रहे हैं। इसलिए हमारा आदरपूर्ण निवेदन है कि विधेयकोंपर विचार करने के पहले यह सम्माननीय सदन असंदिग्ध रूपमें पता लगा ले कि यह अनिष्ट मौजूद है भी या नहीं।

प्राथियोंका नम्र सुझाव है कि स्वतन्त्र भारतीयोंकी गणना की जाये। और बारीकीसे यह जाँच भी की जाये कि भारतीयोंकी उपस्थिति अनिष्ट है या नहीं। विधेयकोंके बारेमें इस सदन के सही निष्कर्षपर पहुँचने के लिए ये दोनों बातें बिलकुल जरूरी है। इस कार्यमें इतना समय नहीं लगेगा कि इसके बाद कानून बनाना बेकार हो जाये।

विधेयकोंके छिपे हुए उद्देश्य और उनके असामयिक स्वरूपको छोड़कर भी परीक्षण करनेपर मालूम हो जाता है कि वे अन्यायपूर्ण और मनमाने हैं।

जहाँतक संगरोध-विधेयककी बात है, प्रार्थी इस सम्माननीय सदनको आश्वासन देते है कि इसकी आलोचना करते हुए वे किसी भी ऐसी बातका विरोध नहीं करना ते जो समाजकी स्वास्थ्य-रक्षाके लिए आवश्यक हो, फिर चाहे वह कितनी ही कठोर क्यों न हो। उपनिवेशको संक्रामक रोगोंसे सुरक्षित रखने के लिए जो भी कानून बनाये जायेंगे, उनका प्रार्थी स्वागत करेंगे और उनका अमल कराने में अधिकारियोंको यथाशक्ति सहयोग देंगे। परन्तु प्रार्थियोंकी शिकायत है कि यह विधेयक तो भारतीयविरोधी नीतिका एक अंग-मात्र है। ऐसी अवस्थामें उसके खिलाफ आदरके साथ अपना विरोध दर्ज करा देना प्रार्थी अपना कर्तव्य समझते हैं। प्रार्थी मानते हैं कि एक ब्रिटिश उपनिवेशमें इस तरहका कानून बनने से ब्रिटिश सत्ता व व्यापारके प्रति ईर्ष्या रखनेवाली दूसरी सत्ताओंको अपने यहाँ बनाये जानेवाले कष्टप्रद संक्रामक रोग-नियमोंको उचित ठहराने का मौका मिलेगा।

व्यापार-परवाना विधेयकका प्रार्थी वहाँतक स्वागत करते हैं, जहाँतक उसका मंशा उपनिवेशके विभिन्न समाजोंको अपने घर-बार साफ-सुथरे रखने और अपने मुहरिरों तथा नौकरोंके लिए अच्छे मकानोंकी व्यवस्था करने की शिक्षा देना है।

परन्तु परवाना देनेवाले अफसरको परवाना देनेसे "स्वेच्छानुसार" इनकार करने का जो विवेकाधिकार दिया जा रहा है, उसका हम आदरपूर्वक, फिर भी अत्यन्त जोरोंके साथ, विरोध करते हैं। औपनिवेशिक सचिव, नगर-परिषदों या नगरनिकायों को अन्तिम अधिकार देनेवाली उपधाराके तो हम और भी खास तौरसे विरोधी हैं। इन धाराओंसे बिलकुल साफ तौरपर मालूम हो जाता है कि विधेयक सिर्फ भारतीय समाजके विरुद्ध काममें लाया जायेगा। जो व्यक्ति या संस्थाएँ अक्सर लोगोंके राग-द्वेषके अनुसार काम करती हों, उनके निर्णयोंके खिलाफ उच्चतम न्यायालयोंसे फरियाद करने का अधिकार प्रजाको न देना सभ्य जगत्के किसी भी हिस्सेमें एक