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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पोशाक भारतीय व्यापारियोंकी पोशाक मानी जाती है। श्री अबूबकर, जो अब नहीं रहे, नेटालके सबसे प्रमुख व्यापारी थे और यूरोपीय समाज उनका बहुत आदर करता था। एक बार उन्हें उनके एक मित्रके साथ पुलिसने गिरफ्तार कर लिया था। जब वह उन्हें रातको ९ बजेके बाद बाहर निकलने के आरोपमें पुलिस-थाने ले गई तो अधिकारियोंने फौरन समझ लिया कि उससे गलती हो गई है। उन्होंने श्री अबूबकरसे कहा कि वे उन-जैसे प्रतिष्ठित पुरुषको गिरफ्तार करना नहीं चाहते। फिर उनसे पूछा गया कि क्या वे व्यापारियों और मजदूरोंको पृथक् पहचानने का कोई स्पष्ट चिह्न बता सकते हैं? श्री अबूबकरने अपना लम्बा चोगा दिखा दिया। उस दिनसे जनता और पुलिसके बीच यह मुक समझौता-सा हो गया कि जो लोग लम्बा चोगा पहने हों, वे अगर रातको ९ बजे के बाद भी बाहर पाये जायें तो उन्हें गिरफ्तार न किया जाये। परन्तु व्यापारी तो तमिल और बंगाली भी हैं। वे भी उतने ही सम्माननीय हैं, फिर भी चोगा नहीं पहनते। इसके अलावा शिक्षित ईसाई युवक हैं। वे बड़े नाजुक-मिजाज हैं। वे भी चोगा नहीं पहनते। उन्हें बराबर सताया जा अभी सिर्फ चार महीने पहलेकी बात है, एक सुशिक्षित नौजवान और रविवासरी स्कूलके शिक्षक और एक अन्य शिक्षकको गिरफ्तार करके रात-भर काल-कोठरीमें बन्द रखा गया था। उनका सारा विरोध, कि वे घर जा रहे थे, व्यर्थ हुआ। मजिस्ट्रेटने बादमें उन्हें रिहा कर दिया। मगर यह तो बड़े अल्प समाधानकी बात हुई। एक भारतीय महिलाको, जो स्वयं शिक्षिका और लेडी स्मिथके भारतीय दुभाषियेकी पत्नी है, कुछ ही दिन पहले एक रविवारकी शामको गिरजेसे लौटते समय दो काफिर पुलिसवालों ने गिरफ्तार कर लिया था। उसके साथ ऐसी खींचातानी की गई कि उसके कपड़े गंदे हो गये। जो सब तरहकी गालियाँ दी गईं, सो अलग। उसे काल-कोठरीमें बन्द कर दिया गया था; परन्तु जैसे ही पुलिस सुपरिटेंडेंटको मालूम हुआ कि वह कौन है, उसे रिहा कर दिया गया। वह बेहोशीकी हालतमें घर ले जाई गई। उस साहसी स्त्रीने गैर-कानूनी गिरफ्तारीके कारण कार्पोरेशनपर हर्जानका दावा किया और सर्वोच्च न्यायालयसे उसे २० पौंड और खर्चेका मुआवजा मिला। मुख्य न्यायाधीशने फैसलेमें कहा कि उसके साथ "अन्याय, कठोरता, स्वेच्छाचार और अत्याचारका" व्यवहार किया गया था। तथापि, इन तीन मुकदमोंका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न कार्पोरेशन अधिक अधिकार पाने और कानूनमें परिवर्तन कराने के लिए चीख-पुकार मचाने लगे हैं। यदि साफ-साफ कहा जाये तो, इसमें उनका उद्देश्य यह है कि सारे भारतीयों पर, उनकी स्थितिका खयाल किये बगैर, प्रतिबन्ध लगा दिये जायें, ताकि, जैसाकि विधानसभाके एक सदस्यने १८९४ का प्रवासी विधेयक स्वीकार होनेके अवसरपर कहा था, "भारतीयोंके जीवनको नेटाल-उपनिवेशकी अपेक्षा उनके अपने देशमें ही ज्यादा आरामदेह बनाने की उपनिवेशकी मंशा" पूर्ण हो सके। किसी भी दूसरे देशमें इस प्रकारके उदाहरणोंसे सही विचारोंवाले सब लोगोंकी सहानुभूति जाग्रत हो जाती और ऊपर बताये हुए निर्णयका आनन्दके साथ स्वागत किया गया होता।