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३६. पत्र : नेटाल सरकारके औपनिवेशिक सचिवको

डर्बन
२६ मार्च, १८९७

सेवामें
माननीय औपनिवेशिक सचिव
मैरित्सबर्ग
महोदय,

मैं आपका ध्यान परम माननीय उपनिवेश मंत्रीके नाम श्रीमान गवर्नर महोदयके एक खरीतेकी[१] ओर आकर्षित करता हूँ जो आज के 'मर्क्युरी' में प्रकाशित हुआ है :

मुझे मालूम हुआ है कि गांधीजी ऐसे बेमौ के जहाजसे उतरकर तटपर आये जबकि बहके हुए लोग प्रदर्शन के शांति पूर्वक निबटने जाने के कारण क्षुब्ध थे और उभरी हुई भावनाओंको ठंडा पड़ने का समय नहीं मिल पाया था। मुझे यह मालूम हुआ है कि श्री गांधी अब मानते हैं ऐसे बेमौके उतरकर आने में उन्होंने जिस सलाह का अनुसरण किया था वह बुरी थी।[२]

  1. खरीतेमें १३ जनवरी, १८९७ की घटनाका यह उल्लेख किया गया था : "श्री गांधी, एक पारसी (मूल के अनुसार) वकील, जो हालके मताधिकार-कानूनके खिलाफ भारतीयोंके आन्दोलनमें प्रमुख रहे हैं और दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंके विषयमें एक ऐसी पुस्तिकाके लेखक हैं, जिसके कुछ बयानोंपर यहाँ बहुत नाराजी जाहिर की गई है, ठीक उतरने के स्थानपर नहीं, बल्कि डवन नगरकी सीमाके अन्दर उत्तरे; और कुछ दंगई लोगोंने उन्हें पहचान लिया और उनको घेर लिया तथा उनके साथ दुव्यवहार किया। इसके बाद वह अनुच्छेद था, जो गांधीजी ने उद्धत किया है तथा जिसका अन्त इन शब्दोंसे हुआ था : "और वे इस विषय में अपनी कार्रवाईकी जिम्मेवारी स्वीकार करते हैं।" (नेटाल मर्क्युरी, २६–३–१८९७)।
  2. गांधीजी को बादमें अपने साथ तटपर ले जानेवाले और जहाज-कम्पनीके कानूनी सलाहकार श्री लॉटनने जो सलाह दी थी, वह ठीक-ठीक यह है : "मुझे लगता है कि आपका बाल भी बाँका न होगा। अब तो सब-कुछ शान्त है। सब गोरे तितर-बितर हो गये हैं। पर कुछ भी क्यों न हो, मेरी राय है कि आपको छिपे तौरपर शहर में कदापि न जाना चाहिए।" देखिए खण्ड ३९, पृ॰ १४९।

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