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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

होनेवाला है, इस कारण मैं यह सुझाने का साहस कर रहा हूँ कि इसपर लोक सेवकोंको पूरा ध्यान देना चाहिए। दुर्भिक्षका एक इलाज विदेशोंमें जाकर बसना भी है। और उपनिवेश अब इसीको रोकने का प्रयत्न कर रहे हैं। ऐसी हालतमें मेरा निवेदन है कि इस मामलेपर भारतके लोकसेवकोंको तुरन्त और बहुत ही संजीदगीके साथ ध्यान देना चाहिए।

आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि यहाँके भारतीयोंने भारतीय दुर्भिक्ष-कोषमें १,१३० पौंड़से अधिक चन्दा दिया है।

आपका आज्ञाकारी,
मो॰ क॰ गांधी

मूल अंग्रेजीकी साइक्लोस्टाइल प्रतिकी फोटो-नकल (एस॰ एन॰ २२१०) से।

४२. पत्र : फर्दुनजी सोराबजी तलेयारखाँको

डर्बन
[२ अप्रैल, १८९७ या उसके पश्चात्][१]

प्रिय श्री तलेयारखाँ,

मैं आज आपको प्रार्थनापत्र और दूसरे कागजात भेज रहा हूँ। अधिक लिखने के लिए समय ही नहीं है। समस्याने ऐसा गंभीर रूप धारण कर लिया है कि भारतीयों पर जो बाधा-निषेध लादे जा रहे हैं, उनके खिलाफ सारे भारतको उठ खड़ा होना चाहिए। समय अभी है या फिर कभी न होगा। और नेटाल-सम्बन्धी प्रश्नका निर्णय तमाम उपनिवेशोंपर लागू किया जा सकेगा। सार्वजनिक संस्थाएँ दुर्व्यवहार-विरोधी प्रार्थनापत्रोंसे भारतीय मंत्रालयको पूर क्यों नहीं दे सकतीं? सबका मत एक ही है। न्याय प्राप्त करने के लिए कार्रवाई ही जरूरी है।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

[पुनश्च :

अगर और कुछ नहीं किया जा सकता तो, किसी भी हालतमें, राज्यके द्वारा प्रवासियोंका भेजा जाना तो बन्द कर ही दिया जाये।

मो॰ क॰ गां॰

मूल अंग्रेजी पत्रसे; सौजन्य : रुस्तमजी फर्दुनजी सोराबजी तलेयारखाँ

  1. यह पत्थर २ अप्रैल, १८९७ के परिपत्रकी पीठपर लिखा गया था; देखिए पिछला शीर्षक।