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४६. पत्र : 'नेटाल मर्क्युरी' को[१]

डर्बन
१३ अप्रैल, १८९७

सम्पादक,
'नेटाल मर्क्युरी'
महोदय,

भारतसे लौटने के बाद भारतीयोंके प्रश्नपर लिखने का मेरा यह पहला ही मौका है। इस बीच मेरे बारेमें बहुत कुछ कहा गया है। मैं चाहता तो बहुत हूँ कि उस सबकी उपेक्षा कर दूँ, फिर भी मालूम होता है कि कुछ कहे बिना काम न चलेगा। मुझपर ये आरोप लगाये गये हैं : (१) भारतमें मैंने उपनिवेशियोंके चारित्र्यको बदनाम किया और कई गलत-बयानियाँ की;[२] (२) उपनिवेशको भारतीयोंसे पूर देने के लिए मेरे अधीन एक संस्था है;[३] (३) मैने 'कूरलैंड' और 'नादरी' जहाजोंके यात्रियोंको भड़काया कि वे गैर-कानूनी तौरसे रोके जाने के कारण सरकारपर हरजानेका मुकदमा चलाये;[४] (४) मुझे राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा है और मैं जो काम कर रहा हूँ, उसका उद्देश्य अपनी थैली भरना है।

जहाँतक पहले आरोपकी बात है, आपने मुझे उससे मुक्त कर दिया है।[५] इसलिए उसके बारेमें कुछ कहना आवश्यक नहीं मालूम होता। फिर भी, रस्मी तौरपर तो मैं यह कह ही दूँ कि मैंने कभी ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे मुझपर वह अपराध लगाया जा सके। दूसरे आरोपके बारेमें मैंने जो-कुछ, अन्यत्र कहा है उसीको यहाँ दुहराता हूँ : मेरा ऐसे किसी संगठनसे कोई सम्बन्ध नहीं है और जहाँतक मुझे मालूम है, उपनिवेशको भारतीयोंसे पूर देने के लिए कोई संगठन है भी नहीं। तीसरे आरोपको मैं नामंजूर कर ही चुका हूँ और अब मैं फिर बहुत जोरोंसे कहता हूँ कि मैंने सरकारपर मुकदमा चलाने के लिए भी किसी यात्रीको नहीं भड़काया। चौथे आरोपके बारेमें मैं कहता हूँ कि मुझे कोई भी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा नहीं है। जो लोग मुझसे व्यक्तिगत रूपसे परिचित है, वे जानते है कि मेरी महत्त्वाकांक्षा किस दिशामें है। मैं किसी प्रकारके संसदीय सम्मानकी आकांक्षा नहीं करता। और

  1. यह "द इंडियन क्वेश्चन" (भारतीयों का प्रश्न) शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था।
  2. यह उल्लेख 'हरी पुस्तिका' में बताई गई गलत-बयानियोंका है।
  3. देखिए "पत्र : नेटाल मर्क्युरीको", १३–११–१८९७ तथा १५–११–१८९७।
  4. देखिए पृ॰ ३१४–२०।
  5. देखिए पृ॰ १३१–३३ तथा १७४–७६।