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पत्र : 'नेटाल मर्क्युरी' को

उन्होंने किन्हीं यूरोपीयोंको नहीं उखाड़ा; उलटे, उन्हें समृद्धिशाली बनाया है और उपनिवेशकी सामान्य सम्पत्तिको बहुत बढ़ा दिया है। उन्होंने जो काम किया है, क्या उसे यूरोपीय लोग करेंगे—कर सकेंगे? क्या भारतीयोंने इस उपनिवेशको दक्षिण आफ्रिकाका उद्यान-उपनिवेश बनाने में अच्छी-खासी मदद नहीं की है? जब यहाँ स्वतंत्र भारतीय नहीं थे उस समय एक गोमीकी कीमत आधा क्राउन [ढाई शिलिंग या लगभग एक रुपया ग्यारह आने] होती थी। अब गरीबसे-गरीब आदमी भी गोभी खरीद सकता है। क्या यह अभिशाप है? क्या इससे श्रमिकोंको कुछ हानि पहुँची है? कहा जाता है कि भारतीय व्यापारियोंने "उपनिवेशका कलेजा ही खा लिया है।" क्या बात ऐसी ही है? यूरोपीय पेढ़ियोंने जिस तरह अपने व्यापारको बढ़ाया है, वह भारतीय व्यापारियोंके ही कारण सम्भव हुआ है। और इस वृद्धिके कारण ये पेढ़ियाँ सैकड़ों यूरोपीय मुहरिरों और हिसाब-नवीसोंको नौकरी दे सकती है। भारतीय व्यापारी तो बिचौलियोंका काम करते हैं। वे अपना काम वहाँ से आरम्भ करते हैं, जहाँ यूरोपीय उसे छोड़ते हैं। इससे इनकार नहीं कि वे यूरोपीयोंकी अपेक्षा कम खर्चपर रह सकते हैं। मगर यह तो उपनिवेशके लिए लाभजनक है। वे यूरोपीय वस्तु-भंडारोंसे थोक खरीदारी करते हैं और थोक भावोंपर थोड़ा-सा फायदा लेकर बिक्री कर सकते हैं। इस तरह वे गरीब यूरोपीयोंको लाभ पहुंचाते हैं। इसके जवाबमें कहा जा सकता है कि आज जो काम भारतीय दूकानदार करते हैं, वही काम यूरोपीय कर सकते हैं। यह एक भ्रम है। अगर भारतीय न होते तो वही यूरोपीय जो आज थोक व्यापारी हैं, फुटकर विक्रेता होते। अलबत्ता, कुछ खास-खास व्यापारियोंकी बात अलग होती। इसलिए, भारतीय दुकानदारोंने यूरोपीय दुकानदारोंको एक सीढ़ी ऊपर उठा दिया है। यह भी कहा गया है कि भविष्यमें भारतीय व्यापारी यूरोपीयों के हाथका थोक व्यापार भी हड़प सकते हैं। यह खयाल वास्तविक हालतोंसे मेल नहीं खाता, क्योंकि थोक भाव यूरोपीय और भारतीय भंडारोंमें बिलकुल एक-से नहीं, तो लगभग एक-से जरूर है। इस प्रकार थोक व्यापारमें प्रतिद्वंद्विता करना किसी भी तरह अनुचित नहीं माना जा सकता। भारतीयोंका सस्ता रहन-सहन थोक भाव निश्चित करने में कोई महत्त्वपूर्ण असर नहीं डालता, क्योंकि एकको सस्ते रहन-सहनसे जो फायदा है, वह दूसरेको उसकी अधिक सुव्यवस्थित व्यावसायिक आदतों और व्यापार-सम्बन्धी "स्वदेश-सम्बन्धों" से मिल जाता है। एक ओर तो यह आपत्ति की जाती है कि भारतीय नेटालमें जमीन-जायदाद खरीदते हैं और दूसरी ओर कहा जाता है कि उनका धन उपनिवेशमें काम नहीं आता, बल्कि भारतको चला जाता है—क्योंकि "वे बूट नहीं पहनते, यूरोपीयोंके बनाये वस्त्र नहीं पहनते और अपनी कमाई भारतको भेज देते हैं," और इस प्रकार उपनिवेशके धनका भयानक अपचय हो रहा है। ये दोनों आपत्तियाँ स्वयं ही एक-दूसरीका पूरा जवाब देनेवाली हैं। अगर मान लिया जाये कि भारतीय बूट और यूरोपीयोंके बनाये कपड़े नहीं पहनते, तो भी वे इस प्रकार बचा हुआ धन भारत नहीं भेजते, बल्कि उसे जमीन-जायदाद खरीदने में लगा देते हैं। इसलिए, वे उपनिवेशमें एक हाथसे