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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय


विधेयकमें सीधे-सच्चेपनका अभाव उपनिवेशमें प्रायः सभी लोगोंको अखरा है। उपनिवेशकी राजधानी मैरित्सबर्गके किसान-सम्मेलन, बरो के सदस्योंको विधेयकपर अपने विचार व्यक्त करने का मौका देने के लिए की गई डर्बनके टाउन हॉलकी सभा और अन्य सभाओंने इस मुद्देपर उसका विरोध किया है कि विधेयक ब्रिटिश रीतिनीतिके प्रतिकूल है। संसदके अनेक सदस्योंने भी उसके खिलाफ जोरदार विचार व्यक्त किये हैं। विधानसभामें असंगठित विरोधी पक्षके नेता श्री बिन्सने कहा है :

हमें इतने गंभीर विषयपर शुद्ध स्थानिक दृष्टिसे विचार नहीं होने देना चाहिए। विधेयक सीधा-सच्चा नहीं है। वह सीधा विषयपर नहीं पहुँचता। उस शामको जो प्रार्थनापत्र पढ़ा गया था उसमें कहा गया था कि वह ब्रिटिश रीति-नीतिके प्रतिकूल है। इससे ज्यादा उपयुक्त आक्षेप और कोई नहीं हो सकता। विधेयकको किसीने पसन्द नहीं किया। सारे नेटालमें उसे पसन्द करनेवाला एक व्यक्ति भी नहीं है। और स्वयं प्रधानमंत्रीको तो वह हरगिज पसन्द नहीं है। हो सकता है, उन्होंने सोचा हो कि उसकी जरूरत है, और उसे यही रूप दिया जाना चाहिए। परन्तु अगर उनके भाषणमें कोई एक बात स्पष्ट थी तो यही थी कि वे विधेयकको पसन्द नहीं करते।

विधानसभाके एक अन्य सदस्य श्री मेडन ने

अपना मत जोरोंसे व्यक्त किया। उनका विश्वास था कि नेटालके ज्यादातर उपनिवेशी उनसे सहमत हैं कि इस विधेयकको स्वीकार करने के बदले वे एशियाई बाढ़की कीचड़में लुढ़कते रहना पसन्द करेंगे।

दूसरे सदस्य श्री सिमन्स ने कहा :

हम भारतीयोंको अपने बीचसे हटा नहीं सकते। न ही हम उनके वे विशेषाधिकार छीन सकते हैं, जो उन्हें ब्रिटिश प्रजाको हैसियतसे प्राप्त हैं। क्या कोई राजनीतिज्ञ कहलानेवाला अंग्रेज ऐसा विधेयक बनायेगा और फिर उसके स्वीकार होनेकी अपेक्षा करेगा? यह विधेयक एक राक्षसो विधेयक है। ऐसा विधेयक एक ब्रिटिश उपनिवेशके लिए कलंककी चीज है। हम उसे एशियाइयोंको रोकने का विधेयक क्यों न कहें? भापसे चलनेवाले जहाजोंके इस जमाने में हम रुख बदलकर रास्ता तय करने की बातें नहीं किया करते, बल्कि सीधे आगे बढ़ते रहते हैं।

इस प्रकार विधेयकके बारेमें मतैक्य नहीं है। इसलिए, हमारा निवेदन है कि इतना कठोर विधेयक मंजूर करने के पहले भारतीयोंकी जन-गणना कराने और विषय की जाँच कराने के बारेमें, कि क्या सचमुच ही भारतीय आबादी उपनिवेशके लिए अभिशापस्वरूप है, हमारी प्रार्थना पूरी की जा सकती थी। हमारा निवेदन है कि विधेयक मंजूर करने का जरा भी औचित्य नहीं था। यह साबित नहीं किया गया कि भारतीयोंकी संख्या यूरोपीयोंकी संख्याकी अपेक्षा अधिक वेगसे बढ़ रही है। इसके