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दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतीयोंकी कष्ट-गाथा

'नेटाल मर्क्युरी' के ५ मार्च, १८९६ के अंकमें विधेयकके सम्बन्धमें जो विचार प्रकट करके उसका समर्थन किया है, उनका मुलाहजा कर लें। मतदाता-सूचीसे आँकड़े उद्धृत करने के बाद कहा गया है :

सच बात यह है कि संख्याके परे, जो जाति सर्वथा श्रेष्ठ होगी वही सदैव शासनका सूत्र अपने हाथमें रखेगी। इसलिए हमारा विश्वास कुछ ऐसा है कि भारतीय मतोंके यूरोपीय मतोंको निगल जानेका खतरा बिलकुल काल्पनिक है। हम नहीं मानते कि यह खतरा जरा भी सम्भव है, क्योंकि पिछले अनुभवने सिद्ध कर दिया है कि भारतीयोंका जो वर्ग साधारणतः यहाँ आता है, वह मताधिकारकी परवाह नहीं करता। इसके अलावा, उनमें से ज्यादातर लोगोंके पास मताधिकारके लिए आवश्यक थोड़ी-सी सम्पत्ति भी नहीं है।

यह अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया गया है। 'मर्क्युरी' का अनुमान है, और हमारा विश्वास है, कि अगर विधेयकका मंशा एशियाइयोंको मताधिकारसे वंचित करना हुआ तो वह अपने उद्देश्यमें विफल हो गया तो कोई हर्ज न होगा। तो फिर, भारतीय समाजको सताने के सिवा उसका उद्देश्य क्या है? विधेयकके पेश किये जानेका सच्चा कारण 'मर्क्युरी' ने अपने २३ अप्रैल, १८९६ के अंकमें बचा-बचाकर लेकिन स्पष्ट भावसे इस प्रकार बताया है :

सही हो या गलत, न्यायपूर्ण हो या अन्यायपूर्ण, दक्षिण आफ्रिकाके और विशेषतः दोनों गणराज्योंके यूरोपीयोंके दिलोंमें भारतीयों या किन्हीं भी दूसरे एशियाइयोंको बे-रोक मताधिकार देनेके खिलाफ जोरदार भावना मौजूद है। भारतीयोंका तर्क बेशक यह है कि खुले मताधिकारके अन्तर्गत हालमें ३८ यूरोपीय मतदाताओंके पीछे केवल एक भारतीय मतदाता है और जिस खतरेका अनुमान किया जाता है वह काल्पनिक है। शायद हमें खतरेको सच्चा मानकर ही चलना होगा। जैसाकि हम बता चुके हैं, इसका कारण सर्वथा हमारा विचार नहीं है। बल्कि देशके शेष यूरोपीयोंकी भावना है जो, हम जानते हैं, उनके दिलोंमें मजबूतीके साथ जमी हुई है। फिर, हम यह नहीं चाहते कि देशकी दूसरी यूरोपीय सरकारें हमपर यह अधिक बड़ा और अधिक घातक प्रतिबन्ध लगाकर कि हम उनके सम्पर्कसे दूर और उनसे बेमेल अर्ध-एशियाई देश बन गये हैं, हमें अपने से अलग कर दें।

तो, यह है नग्न सत्य। लोगोंकी चिल्लाहटको मानकर—चाहे वह न्यायपूर्ण हो या अन्यायपूर्ण—एशियाइयोंको दबाना ही है! यह विधेयक सरकार द्वारा आयोजित एक गुप्त बैठकके, जिसमें कि इसे पास करने के सच्चे कारण बताये गये थे, बाद पास किया गया। उपनिवेशियों और समाचार-पत्रोंने, और स्वयं इसके पक्षमें मत देनेवाले सदस्योंने इसे ना-काफी कहकर इसकी निन्दा की है। उनकी शिकायत है कि यह विधेयक भारतीयोंपर लागू नहीं होगा, क्योंकि "भारतमें संसदीय मता-