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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

धिकारपर आधारित चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाएँ मौजूद हैं और इस विधेयकसे उपनिवेश अनन्त मुकदमेबाजी और आन्दोलनके जालमें फँस जायेगा।" हमने भी इसी तर्कका आधार ग्रहण किया है। हमने जोर दिया है कि भारतकी विधान परिषदें "संसदीय मताधिकारपर आधारित चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाएं हैं।" बेशक, शब्दोंके लोक-स्वीकृत अर्थमें हमारे देशकी संस्थाएँ ऐसी नहीं है; परन्तु लन्दनके 'टाइम्स' और डर्बनके एक सुयोग्य न्यायशास्त्रीके मतानुसार, कानूनी दृष्टिसे हमारी संस्थाएँ विधेयकमें वर्णित संस्थाके वर्गमें बखूबी बैठ सकती हैं। 'टाइम्स' का कथन है : "यह तर्क कि भारतमें भारतीयोंको किसी भी प्रकारका मताधिकार नहीं है, वस्तुस्थितिसे मेल नहीं खाता।" नेटालके एक प्रमुख वकील श्री लॉटनने एक समाचारपत्रमें लिखते हुए कहा है :

तो, क्या भारतमें संसदीय (या विधानमंडलीय) मताधिकार है? और है तो वह क्या है? वह है, और उसकी व्यवस्था विक्टोरिया अध्याय ६७ के अधिनियम २४ व २५, और विक्टोरिया अध्याय १४० के अधिनियम ५५ व ५६ के अनुसार उपर्युक्त दूसरे कानूनके खंड ४ के अन्तर्गत बने नियमोंसे की गई थी। हो सकता है, जिसे हम उदार आधार कहते हैं उसपर वह निर्मित न हो, और उसका निर्माण एक बहुत मोटे आधारपर किया गया हो। फिर भी वह संसदीय मताधिकार तो है ही। और विधेयकके अन्तर्गत, उसे ही भारतको चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाओंका आधार मानना होगा।

यह मत नेटालके अन्य प्रतिष्ठित लोगोंका भी है। तथापि श्री चेम्बरलेन इस विषयमें अपने खरीतेमें[१] कहते है।

मैं यह भी स्वीकार करता है कि भारतीयोंकी उनके अपने देशमें कोई प्रातिनिधिक संस्थाएँ नहीं हैं और इतिहासके उन युगोंमें, जबकि वे यूरोपीय प्रभावसे मुक्त थे, उन्होंने स्वयं कभी इस प्रकारकी प्रणालीकी स्थापना नहीं की।

स्पष्ट है कि हमने 'टाइम्स' का जो मत आंशिक रूपमें उद्धृत किया है, यह मत उसके विरुद्ध है। स्वाभाविक बात है कि इससे हम डर गये हैं। हम जानने को उत्सुक है कि यहाँ के सर्वश्रेष्ठ कानूनी पंडितोंका मत क्या है? तथापि, हम कितनी भी बार कह सकते हैं कि हम राजनीतिक सत्ताके लोलुप नहीं है, बल्कि उस गिरावटका विरोध करते हैं, जो इन मताधिकार-विधेयकोंसे अवश्यंभावी है। अगर किसी उपनिवेशको किसी एक बातमें भारतीयोंके साथ यूरोपीयोंकी अपेक्षा भिन्न आधारपर व्यवहार करने दिया गया तो उस उपनिवेशका और आगे बढ़ जाना भी कठिन न होगा। उनका लक्ष्य केवल मताधिकारका अपहरण करना नहीं है, बल्कि भारतीयोंको बिलकुल मिटा देना है। भारतीयोंको वहाँ अछूतोंके तौरपर, गिरमिटिया मजदूरोंके

  1. १२ सितम्बर, १८९५ के।