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६६. पत्र : 'नेटाल मर्क्युरी' को

डर्बन
१५ नवम्बर, १८९७

सम्पादक
'नेटाल मर्क्युरी'
महोदय,

प्रवासी कानून[१] से बचने के लिए तथाकथित संगठनके बारेमें मेरे पत्रपर[२] आपने आजके अंकमें कुछ आक्षेप किये हैं। आशा है, न्यायकी दृष्टि से, आप उन आक्षेपोंपर मुझे कुछ शब्द कहने की अनुमति देंगे। मुझे शंका है कि मेरे पत्रका गलत अर्थ लगाया गया है। मैंने उसमें नेटालवासी भारतीयोंके प्रति किये जानेवाले व्यवहारकी विवेचना नहीं की थी। मैंने पत्रों में प्रकाशित इस आशयके बयानको, और ऐसे अन्य बयानोंको कि जो भारतीय हालमें डेलागोआ-बे में उतरे हैं वे नेटाल आ रहे हैं, नकार-भर दिया है। ऐसा करने में मेरा मंशा आवश्यक आतंकको टालना था। "गत अधिवेशनके कानूनको टाला न जाये, इसलिए सजग" रहने के यूरोपीयोंके अधिकारपर मैं विवाद नहीं करता।

उलटे, मेरा कहना यह है कि जबतक कानूनकी किताबमें वह कानून है तबतक उत्तरदायी भारतीयोंका इरादा उसे मानने और सरकारको उसका अमल कराने में शक्ति-भर मदद करने का है।

मैं जिस बातपर आदरपूर्वक आपत्ति करता हूँ वह है झूठी अफवाहों और उनके आधारपर बनी धारणाओंका फैलाया जाना। उनसे बेचैनी पैदा हो सकती है और यूरोपीयोंके मनका समतोल बिगड़ जानेका अन्देशा है। मैंने जिस जाँचका सुझाव दिया है वह, आपके मतके प्रति उचित आदर रखते हुए भी, स्पष्टतः जरूरी है। जनताके सामने दो विरोधी बातें हैं। एक तो यह है कि प्रवासी कानूनको समग्रतः टालने का प्रयत्न किया जा रहा है। "मैन इन द मून" के मतानुसार उसे एक संगठनका बल प्राप्त है। दूसरी ओर, इस वक्तव्यको पूरी तरह नामंजूर भी किया गया है। जनता किस बातपर विश्वास करे? क्या सबके लिए यह बेहतर न होगा कि कोई अधिकृत वक्तव्य देकर बता दिया जाये कि कौन-सी बात विश्वासके लायक है?

मैने भारतमें जो कुछ कहा था, उसके बारेमें आपने मेरा पक्ष उचित बताया है। जब वह बात जनताके सामने थी तब आपने यह कहने का सौजन्य दिखाया था

  1. यह "इंडियन-इनवेजन" (भारतीयोंका हमला) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
  2. देखिए पृ॰ ३१४–१८।

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