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दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतीयोंकी कष्ट-गाथा

तौरपर या, ज्यादासे-ज्यादा, स्वतंत्र मजदूरोंके तौरपर रहने दिया जा सकता है। परन्तु उन्हें इससे ऊँची आकांक्षा नहीं रखनी चाहिए। जब पहला मताधिकार-विधेयक पेश किया गया था उस समय भारतीयोंका म्युनिसिपल मताधिकार छीनने की चीख-पुकारके उत्तरमें महान्यायवादीने कहा था कि निकट भविष्यमें ही [इस बातका] निबटारा कर दिया जायेगा। लगभग एक वर्ष पूर्व नेटाल-सरकार एक सभा करना चाहती थी, जिसे 'कुली सभा' नाम दिया गया था। उसका मंशा यह था कि सारे दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयों-सम्बन्धी कानूनोंमें अनुरूपता हो। उस समय भी डर्बनके उप-मेयरने एक प्रस्ताव पेश किया था कि एशियाइयोंको पृथक् बस्तियोंमें रहने के लिए राजी किया जाये। अब सरकार यह सोच निकालने के लिए परेशान है कि वह भारतीय व्यापारियोंकी बाढ़को सीधे और कारगर तरीकेसे कैसे रोके। श्री चेम्बरलेनने तो उन व्यापारियोंको "शान्तिप्रेमी, कानूनका पालन करनेवाले, पुण्यशील व्यक्तियोंका समुदाय" बताया है। उन्होंने आशा व्यक्त की है कि उनकी "असंदिग्ध उद्योगशीलता, बुद्धिमानी और अजेय कार्य-तत्परता उनके धंधोंमें आनेवाली सब बाधाओंको जीतने के लिए पर्याप्त होगी।" इसलिए, हमारा नम्र विचार है कि वर्तमान विधेयकके बारेमें इन तथ्योंकी दृष्टिसे विचार करना चाहिए। लन्दन 'टाइम्स'ने मताधिकारके प्रश्नको इस रूपमें पेश किया है :

इस समय श्री चेम्बरलेनके सामने जो प्रश्न है वह सैद्धान्तिक नहीं है। वह प्रश्न दलीलोंका नहीं, जातीय भावनाओंका है। हम अपनी ही प्रजाओं के बीच जाति-युद्ध होने देकर लाभ नहीं उठा सकते। भारत सरकारके लिए नेटालको मजदूर भेजना बन्द करके उसकी प्रगतिको एकाएक रोक देना उतना ही गलत होगा, जितना कि नेटालके लिए ब्रिटिश भारतीय प्रजाजनोंको नागरिक अधिकार देनेसे इनकार करना। ब्रिटिश भारतीयोंने तो वर्षोंकी कमखर्ची और अच्छे कामसे अपने-आपको नागरिकोंके वास्तविक दर्जेतक उठा ही लिया है।

नेटाल-विधानमंडलने जो दूसरा विधेयक स्वीकार किया है, उसका मंशा यह है कि गिरमिटिया भारतीयोंको सदैव गिरमिटिया बनाये रखा जाये। या, अगर उन्हें यह पसन्द न हो तो, पहले पाँच वर्षके इकरारनामेकी अवधि पूरी होनेपर उन्हें भारत भेज दिया जाये। या, अगर वे न जाना चाहें तो, उन्हें तीन पौंड[१] सालाना कर देनेके लिए बाध्य किया जाये। यह हमारी समझके बाहरकी बात है कि एक ब्रिटिश उपनिवेशमें इस प्रकारके कानूनका विचार भी कैसे किया गया। नेटालके लगभग सभी लोकनिष्ठ व्यक्ति इस बातपर एकमत हैं कि उपनिवेशकी समृद्धि भारतीय मजदूरोंपर अवलम्बित है। विधानसभाके एक वर्तमान सदस्यके शब्दोंमें, "जब भारतीयोंको लानेका निश्चय किया गया था, उस समय उपनिवेशकी प्रगति और करीब-करीब उसका अस्तित्व ही डाँवाँडोल था।" परन्तु एक अन्य प्रमुख नेटालवासोके शब्दोंमें :

  1. देखिए खण्ड १, पृ॰ २३८–४० तथा २४०–५१।