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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि भारतीय दृष्टिकोणसे मैने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसपर आपत्ति की जा सके। और मैं अब भी भारतमें कही हुई अपनी सारी बातोंको साबित करने को तैयार हूँ। अगर मुझे ब्रिटिश सरकारोंकी[१] दृढ़ न्याय-बुद्धि पर आस्था न होती तो मैं यहाँ होता ही नहीं। जैसाकि पहले मैं अन्य जगहोंपर कह चुका हूँ, वही मैं यहाँ दुहराता हूँ कि ब्रिटिश लोगोंकी न्याय व औचित्यप्रियता ही भारतीयोंकी आशाका आधार है।

आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
नेटाल मर्क्युरी, १७–११–१८९७

६७. पत्र : नेटालके औपनिवेशिक सचिवको

डर्बन
१८ नवम्बर, १८९७

माननीय औपनिवेशिक सचिव,
मैरित्सबर्ग
महोदय,

मैं आपके १६ तारीखके पत्रकी प्राप्ति-स्वीकार करता हूँ। उसके द्वारा आपने मुझे सूचना दी है कि सरकारने ऐसा कभी नहीं कहा, न उसके पास विश्वास करने का कारण ही है, कि नेटालमें प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमको टालने के लिए किसी संगठनका अस्तित्व है। इस पत्रके लिए मैं सरकारको धन्यवाद देता हूँ और निवेदन करता हूँ कि अगर अधिनियमको टालने के प्रयत्नोंकी सूचना भारतीय समाजको दी जायेगी तो उन प्रयत्नोंकी पुनरावृत्तिको रोकने के लिए नेटालवासी भारतीयोंके प्रतिनिधि सब सम्भव प्रयत्न करेंगे। मैं इस पत्र-व्यवहारकी नकले पत्रोंमें प्रकाशनार्थ भेजने की स्वतन्त्रता लेता हूँ।

आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी'

[अंग्रेजीसे]
नेटाल मर्क्युरी, २०–११–१८९७
  1. आशय ब्रिटेन और नेटाल की सरकार से है।