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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

है। हमारा दावा है कि उस कानूनके द्वारा सरकार हमें बस्तियोंमें निवास करने के लिए सिर्फ बाध्य कर सकती है। परन्तु सरकार दावा करती है कि निवासमें दुकानें भी शामिल हैं और इसलिए उस कानूनके अन्तर्गत हम निर्दिष्ट बस्तियोंके बाहर व्यापार भी नहीं कर सकते। कहा जाता है कि उच्च न्यायालय सरकारी व्याख्याके पक्षमें है।

ट्रान्सवालमें हमें इतनी ही शिकायतें नहीं हैं। ये तो केवल वे शिकायतें हैं, जिनपर पंचका निर्णय प्राप्त किया गया था। परन्तु एक कानून ऐसा है जो रेलवेअधिकारियोंको रोकता है कि वे रेलवेके पहले और दूसरे दर्जेके टिकट न दें। आदिवासी और अन्य ‘गैर-गोरे' लोगोंके लिए एक टीनका डिब्बा सुरक्षित रखा जाता है। उसमें हमारी पोशाक, हमारे बरताव या हमारी स्थितिकी परवाह किये बिना हमें अक्षरशः भेड़ोंके समान ठूँस दिया जाता है। नेटालमें ऐसा कोई कानून तो नहीं है, मगर छोटे-छोटे कर्मचारी परेशान करते रहते हैं। कठिनाई मामूली नहीं है। डेलागोआ-बे में अधिकारी भारतीयोंका इतना आदर करते हैं कि वे उनको तीसरे दर्जेमें सफर करन ही नहीं देते। बात यहाँतक है कि अगर कोई गरीब भारतीय दूसरे दजम सफर करने में समर्थ न हो तो उसे तीसरे दर्जे के टिकटसे दूसरे दर्जेमें सफर दिया जाता है। वही भारतीय जब ट्रान्सवालकी सीमापर पहुँचता है तो उसे अपने मान-सम्मानको समेट लेने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। उससे परवाना दिखाने को कहा जाता है और फिर, चाहे उसके पास पहले दर्जेका टिकट हो, चाहे दूसरे दर्जेका, उसे तीसरे दर्जे के डिब्बेमें ठूँस दिया जाता है। उस तकलीफदेह जगहमें छोटी यात्रा भी महीने-भरकी यात्राके समान लम्बी मालूम होती है। यही बात नेटालकी सीमामें भी है। चार माह पूर्व डर्बनमें एक भारतीय सज्जनने प्रिटोरियाके लिए दूसरे दर्जेका टिकट खरीदा। उन्हें आश्वासन दिया गया था कि वे सकुशल यात्रा कर सकेंगे। फिर भी जब वे ट्रान्सवालकी सीमाके एक स्टेशन फ़ोक्सरस्ट पहुंचे तो उन्हें जबरन् डिब्बेसे उतार दिया गया। इतना ही बस नहीं था, उस दिन वे उस गाड़ीसे यात्रा कर ही नहीं सके, क्योंकि उसमें तीसरे दर्जेका डिब्बा था ही नहीं। इन कानूनोंसे हमारे व्यापारमें भी गम्भीर बाधा पड़ती है। बहुत-से लोग तो जबतक अनिवार्य नहीं हो जाता, एक जगहसे दूसरी जगह जाते ही नहीं।

फिर, ट्रान्सवालमें, दक्षिण आफ्रिकी आदिवासियोंकी तरह, भारतीयोंको अपने साथ यात्राका परवाना रखना पड़ता है, जिसका मूल्य एक शिलिंग होता है। यह उनका यात्रा करने का अनुमति-पत्र होता है। मेरा खयाल है कि यह सिर्फ एक-तरफा सफरके लिए मिलता है। इसका एक उदाहरण यह है कि श्री हाजी मोहम्मद हाजी दादाको डाककी गाड़ीसे उतार दिया गया था और उन्हें परवाना लेने के लिए, संगीन का काम देनेवाले पुलिसके शंबोकके[१] इशारेपर, तीन मील पैदल चलना पड़ा था। परवाना देनेवाला अधिकारी उन्हें जानता था, इसलिए उसने उनको परवाना देना

  1. गैंडेकी खालका कोड़ा। दक्षिण अफ्रीकी गोरे मालिक अपने भारतीय या देशी नौकरोंको पिटनेके लिए अक्सर 'शंबोक' का प्रयोग करते थे।