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दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतीयोंकी कष्ट-गाथा

परे हैं। अगर सफाई-सम्बन्धी कानून न हों तो शायद हम सर्वथा सन्तोषजनक तरीके से न रहें। इस बारेमें, जैसाकि अखबारोंसे मालूम होगा, दोनों समाज बराबर गलती करते हैं। कुछ भी हो, यह तो हमपर मढ़ी जानेवाली तमाम गम्भीर निर्योग्यताओंका कोई कारण नहीं हो सकता। कारण अन्यत्र है, जैसाकि मैं आगे चलकर बताऊँगा। वे सफाईके कानूनोंको खूब कड़ाईके साथ अमलमें लायें। उससे हमें और भी लाभ होगा। हममें जो लोग आलसी हैं, वे अपने आलस्य से जाग उठेंगे, और यह ठीक ही होगा। जहाँतक झूठेपनकी बात है, यह आरोप गिरमिटिया भारतीयोंके बारेमें कुछ हदतक सही है; परन्तु व्यापारियोंके सम्बन्धमें हद दर्जेतक अतिरंजित है। फिर भी, मेरा दावा है कि गिरमिटिया भारतीय जिन परिस्थितियों में रखे गये हैं उनमें रहकर कोई भी दूसरा समाज जितना सच्चा रहता, उससे वे ज्यादा सच्चे रहे है। उपनिवेशी उनको नौकरोंके रूपमें पसन्द करते हैं और उन्हें 'उपयोगी तथा विश्वस्त' कहते हैं—यह हकीकत ही कह देती है कि उन्हें जैसे 'सुधारके परे झूठे' बताया जाता है वैसे वे नहीं हैं। तथापि, जैसे ही वे भारत छोड़ते हैं, अपनेको मर्यादाके पथपर रखनेवाले बन्धनोंसे मुक्त हो जाते है। दक्षिण आफ्रिकामें उन्हें धार्मिक शिक्षाको बुरी तरह जरूरत है; परन्तु वे उससे बिलकुल वंचित रहते है। उन्हें अपने देशभाइयोंके लिए अपने मालिकों के खिलाफ गवाही देनेको कहा जाता है। यह कर्त्तव्य वे अक्सर टालते हैं। इसलिए उनकी हर परिस्थितिमें सत्यपर दृढ़ रहने की शक्ति धीरे-धीरे विकृत होती जाती है और बादमें वे विवश हो जाते हैं।

मेरा निवेदन है कि वे तिरस्कारके बजाय दयाके पात्र हैं। यह दृष्टिकोण दो वर्ष पूर्व मैंने दक्षिण आफ्रिकाकी जनताके सामने पेश किया था। उसने इसपर कोई आपत्ति नहीं उठाई है। दक्षिण आफ्रिकाकी यूरोपीय पेढ़ियाँ सैकड़ों भारतीयोंको करीब-करीब उनकी बातके ही भरोसे बड़े-बड़े कर्ज दे देती है और इसके लिए उन्हें कभी पछताना नहीं पड़ता। बैंक भी भारतीयोंको लगभग असीमित उधार दे देते हैं। इसके विपरीत, सेठ-साहूकार यूरोपीयोंपर उतना विश्वास नहीं करते। ये वास्तविकताएँ निर्णयात्मक रूपसे साबित करती है कि भारतीय व्यापारियोंको जितना बेईमान बताया जाता है, उतने बेईमान वे हो नहीं सकते। तथापि, मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि यूरोपीय व्यापारी भारतीयोंको यूरोपीयोंसे अधिक सत्यनिष्ठ मानते हैं। पर मेरा यह नम्र खयाल तो है ही कि वे दोनोंपर शायद बराबर विश्वास करते हैं, और तब उनका भरोसा भारतीयोंकी कमखर्ची, उनके अपने साहूकारको बरबाद न करने के संकल्प और उनकी संयमी आदतोंपर होता है। एक बैंक एक भारतीयको बड़े पैमानेपर कर्ज देता आ रहा है। उसी बैंकसे एक यूरोपीय सज्जनने, जो बैंकके परिचित और उस भारतीयके मित्र थे, सट्टे के लिए ३०० पौंडका कर्ज मांगा। बैंकने जमानतके बिना उन्हें कर्ज देनेसे इनकार कर दिया। भारतीय मित्रपर उस समय भी बैंकका बहुत कर्ज निकलता था; परन्तु उसने अपनी साखकी जमानत दे दी—और इतना ही काफी हुआ। बैंकने उसकी जमानत मंजूर कर ली। इसका फल यह हुआ कि वह यूरोपीय मित्र बैंकका ३०० पौंडका कर्ज नहीं पटा सका और फिलहाल भारतीय मित्रका उतना रुपया जब्त हो गया है। वह