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दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतयोंकी कष्ट-गाथा

संकेत मिलता है कि साम्राज्यके दूसरे भागोंमें भारतीयोंके प्रवासपर लगाये गये प्रतिबन्धोंको बढ़ने न दिया जाये।

जहाँतक इस प्रश्नके स्थानिक पहलूका सम्बन्ध है, विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या साम्राज्य-सरकारकी यह नीति इस भागमें वांछित व्यवस्थाओंके प्रतिकूल पड़ती है, और अगर पड़ती है तो कहाँतक? कुछ लोग इस उपनिवेशमें भारतीयोंके आगमनकी निन्दा-ही-निन्दा करते हैं। परन्तु इसका असर क्या-क्या होगा, इसके सारे पहलुओंपर इन लोगोंने शायद ही विचार किया है। पहले तो, इन विरोधियोंको इस प्रश्नका उत्तर देना होगा कि भारतीयोंके न होनेपर इस उपनिवेशने उन उद्योग-विभागोंमें क्या किया होता, जिनमें भारतीय निश्चित रूपसे उपयोगी सिद्ध हुए हैं? कुलियोंमें बहुत-कुछ अवांछनीय है, इसमें कोई शंका ही नहीं। परन्तु इसके पहले कि यहाँ उनकी उपस्थितिको शुद्ध बुराई मानकर उसको निन्दा की जाये, यह सिद्ध करना होगा कि अगर वे न आते तो उपनिवेशकी हालत बेहतर होती। हमारा खयाल है कि इसे सिद्ध करना जरा कठिन होगा। इसमें शंकाकी कोई गुंजाइश नहीं कि वर्तमान स्थानिक परिस्थितियोंमें उपनिवेशके खेतोंमें जैसी मंजूरीकी जरूरत है उसके लिए कुली ही सबसे अधिक योग्य हैं। ऐसा काम इस आबहवामें गोरे लोग कभी नहीं कर सकते। आदिवासियोंमें वह वृत्ति या योग्यता है नहीं। इन हालतोंमें, कुलियोंके कृषि-मजदूरोंकी हैसियतसे यहाँ रहने के कारण उच्छेव किसका होता है? किसीका नहीं। कामकी हालत तो यह है कि अगर कुली करें तो होगा, न करें तो वैसे ही पड़ा रहेगा। फिर, सरकार खास तौरसे रेलवेमें कुलियोंको बहुत बड़ी संख्यामें नियुक्त करती है। उनके वहाँ बने रहने पर क्या आपत्ति है? कहा जा सकता है कि वे वहाँ गोरोंकी जगहें ले रहे हैं। परन्तु, क्या यह सही है? हो सकता है कि इक्के-दुक्के मामलोंमें सही हो। परन्तु यह तो एक क्षणके लिए भी नहीं माना जा सकता कि उपनिवेश-भरमें सारे भारतीयोंको सरकारी नौकरियोंसे हटाकर उनकी जगहोंपर गोरोंको बैठाया जा सकता है। इसके अलावा, नेटालके शहर शाक-सब्जीके लिए पूर्णतः कुलियोंपर ही अवलम्बित हैं, जो आसपासकी जमीनमें बागबानी करते हैं। इस क्षेत्रमें कुली किसके मार्गमें बाधक होते हैं? गोरोंके मार्गमें तो हर्गिज नहीं। हमारे किसानोंमें अबतक शाक-सब्जीकी खेतीकी इतनी रुचि पैदा नहीं हुई कि वे बाजारमें मालकी पूर्त्ति कर सकें। वे आदिवासियोंके भी आड़े नहीं आते। देशी लोग तो आलसके साक्षात अवतार हैं, जो साधारणतः अपने लिए मकईके अलावा कुछ पैदा करते ही नहीं। सचाई तो यह है कि हमारे आदिवासियोंको ही हमारा मजदूर-वर्ग होना चाहिए था; परन्तु इस वस्तुस्थितिका तो हमें सामना करना ही होगा कि इस मामलेमें वे बिलकुल बेकार सिद्ध हुए हैं। फलतः हमें किसी दूसरे स्थानसे

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