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टिप्पणियां : दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतयोंकी कष्ट-गाथा

 

चौथी शिकायत : परवाना-कानून

इस कानूनमें व्यवस्था है कि प्रत्येक भारतीयसे परवाना दिखाने को कहा जा सकता है। इसका वास्तविक उद्देश्य काम छोड़कर भागे हुए भारतीयोंका पता लगाना है। परन्तु इसका उपयोग अक्सर भारतीय समाजके प्रति अत्याचारके यन्त्रके तौरपर किया जाता है। नेटालके भारतीयोंने अबतक इन दोनों कानूनोंके विरुद्ध कोर्ट-कारवाई नहीं की। परन्तु ये सामान्य शिकायतोंमें शामिल हो सकते हैं। भारतीयोंके जीवनको जितना हो सके, उतना कष्टमय बनाने की उपनिवेशियोंकी मनोवृत्तिका दिग्दर्शन भी इनसे कराया जा सकता है। जहाँतक इन दोनों कानूनोंके अमलमें लाये जानेका सम्बन्ध है, सहपत्र ३ के पृष्ठ ६ और ७ देखने चाहिए।[१]

जूलूलैंड

यह उपनिवेश सम्राज्ञीके शासनाधीन है। इसका शासन सम्राज्ञीके नामपर नेटालके गवर्नर द्वारा होता है। नेटालके मंत्रिमण्डलका, या नेटालके गवर्नरका—उसकी इस हैसियतसे—जूलूलैंडसे कोई वास्ता नहीं है। वहाँ थोड़ी-सी यूरोपीयोंकी और भारी संख्यामें देशियों (काफिरों) की आबादी है। कुछ नयी बस्तियां भी बसाई गई है। मेलमॉथ नामक बस्ती सबसे पहले बसाई गई थी। १८८८ में इस बस्तीमें भारतीयोंने लगभग २,००० पौंडकी मकान बनाने की जमीन खरीदी थी। १८९१ में एशोवे और १८९६ में नोंदवेनी नामक बस्तियाँ बसाने की घोषणा की गई। इन दोनों बस्तियोंमें मकानोंकी जमीन खरीदने के नियम एक ही हैं। उनमें कहा गया है कि मकानोंकी उन जमीनोंपर सिर्फ यूरोपीय जन्म या वंशके लोगोंकी कब्जेदारी स्वीकार की जायेगी। (सहपत्र ७)[२]

इन नियमोंके विरुद्ध गत फरवरी मासमें जूलूलैंडके गवर्नरको एक प्रार्थनापत्र[३] दिया गया था। परन्तु उन्होंने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।

इसपर श्री चेम्बरलेनको एक प्रार्थनापत्र[४] भेजा गया। वह अभी उनके विचाराधीन है। स्पष्ट है कि स्वशासित उपनिवेशोंको जो-कुछ करने दिया गया है, उससे ये नियम बहुत आगे बढ़ गये हैं। इनमें ऑरेंज फ्री स्टेटकी पूर्ण निष्कासनकी नीतिका अनुसरण किया गया है।

जूलूलैंडकी सोनेकी खानोंके कानूनोंके अनुसार भारतीय देशी सोना खरीद या रख नहीं सकते। यह उनके लिए दण्डनीय अपराध माना जाता है।

  1. देखिए पृ॰ ७–१०।
  2. यह उपलब्ध नहीं है।
  3. देखिए खण्ड १, पृ॰ ३०७–८।
  4. देखिए खण्ड १, पृ॰ ३१६–१९।