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टिप्पणियाँ : दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतयोंकी कष्ट-गाथा

लेना ज्यादा ठीक न होगा कि सम्राज्ञीको सरकार समझौतेके शब्दोंके किसी ऐसे अर्थका आग्रह न रखेगी, जिससे वांछित दिशामें कानून बनाने में बाधा पड़ती हो?

लॉर्ड डर्बीके सुझावके अनुसार ट्रान्सवालकी फोक्सराटने १८८५ का उपनियम ३ पास कर दिया। वह सब भारतीयों और गैर-गोरे लोगोंपर लागू होता है। उसमें विधान किया गया है कि इन लोगोंमें से कोई भी मताधिकार नहीं पा सकते, अचल सम्पत्तिके मालिक नहीं बन सकते, जो गैर-गोरे लोग व्यापारके उद्देश्यसे गणराज्यमें बसते हैं उन्हें अपने आगमनके आठ दिनके अन्दर अपने नाम पंजीकृत कराने होंगे और उन्हें २५ पौंड पंजीकरण-शुल्क देना होगा। इस कानूनको भंग करनेवाले के लिए ३० पौंडसे लेकर १०० पौंड तक जुर्मानेकी, और जुर्माना न देनेपर १ माससे ६ मासतक कैदकी सजा निश्चित की गई है। इसमें यह विधान भी है कि सरकार को गैर-गोरे लोगोंके निवासके लिए गलियों, मुहल्लों और बस्तियोंका निर्देश करने का अधिकार होगा। १८८६ में इस कानूनमें संशोधन करके २५ पौंड शुल्कको ३ पौंड कर दिया गया। शेष धाराएँ जैसीकी-तैसी रखी गई। ट्रान्सवालके भारतीयोंके लिए इस समय वहीं कानून अमलमें हैं। कानूनके पास होनेपर भारतीयोंने भारत और ब्रिटेनकी सरकारोंको तार द्वारा तथा अन्य रूपोंमें भी अर्जी भेजी। उसमें १८८५ के कानून ३ और उसके संशोधनके प्रति विरोध व्यक्त किया गया और बताया गया कि वे लंदनसमझौतेका सीधा भंग करनेवाले हैं। इसके फलस्वरूप लॉर्ड नट्सफोर्डने[१] भारतीयोंकी ओर से कुछ अभ्यावेदन पेश किये। 'निवास' शब्दके अर्थके बारेमें दोनों सरकारोंके बीच बहुत विस्तारसे लिखा-पढ़ी हुई है। ब्रिटेनकी सरकारका आग्रह था कि 'निवास' का अर्थ केवल रहने का स्थान होता है। ट्रान्सवाल-सरकारका कहना था कि उसमें केवल रहन का स्थान नहीं, बल्कि व्यापारिक वस्तु-भडार भी शामिल हैं। आखिरी नतीजा यह निकला कि सारी चीज़ 'गड़बड़-घोटालेसे महा गड़बड़-घोटाले' में परिणत हो गई और दोनों सरकारोंके बीच यह समझौता हुआ कि १८८५ के कानून ३ और उसके संशोधनकी वैधता तथा अर्थका निर्णय पंचके सुपुर्द किया जाये। ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशको एकमात्र पंच चुना गया। उन्होंने गत वर्ष यह निर्णय दिया कि ट्रान्सवाल-सरकारका १८८५ का कानून ३ और उसका संशोधन पास करना जायज़ था। परन्तु उन्होंने उनके अर्थका प्रश्न अनिर्णीत छोड़ दिया और कहा कि अगर दोनों पक्ष किसी एक अर्थपर सहमत नहीं हो सकते तो इस प्रश्नका-फैसला करने के लिए ट्रान्सवाल के न्यायालय ही उपयुक्त न्यायपीठ हैं। (सहपत्र ८)

ट्रान्सवालके भारतीयोंने भारत-सरकार तथा ब्रिटेनकी सरकारको प्रार्थनापत्र[२] भेजे। श्री चेम्बरलेनने अपना फैसला देते हुए अनिच्छापूर्वक पंच-फैसला मंजूर कर लिया। परन्तु उन्होंने भारतीयोंके प्रति सहानुभूति व्यक्त की है और उनका बखान

  1. उपनिवेश-मंत्री, १८८७–९२।
  2. देखिए खण्ड १, पृ॰ २०८–२१ तथा २२८–३०।

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